मापनी २१२२ २१२२ २१२२
ज़िंदगी अच्छी तरह अब कट रही है,
आजकल खुद से हमारी पट रही है.
लूट कर वो ले गई है दिल हमारा,
झूलती रुखसार पर जो लट रही है.
हाल पूछा जो हमारा आज उसने,
हर पुरानी पीर दिल की घट रही है.
धुंध दुख की छँट गई माँ की दुआ से,
रेल सुख की दौड़ अब सरपट रही है.
धीरे-धीरे दिख रहा है साफ सब कुछ
धूल मन के आईने की हट रही है.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार
आपकी निरंतर हौसला अफजाई मुझे सम्बल प्रदान करती है , दिल से शुक्रिया आपका
आदरणीय Rupam kumar -'मीत' जी सादर नमस्कार
आपका दिल से शुर्किया
आदरणीय Samar kabeer जी सादर नमस्कार
आपकी तरमीम का दिल से शुक्रिया, सुझाव बहुत अच्छा है हमेशा की तरह , सुधार कर पुन प्रस्तुत करता हूँ
आदरणीय Harash Mahajan जी सादर नमस्कार
हृदय से आभार आपका
जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ
आ. भाई बसंत कुमार जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'ज़िंदगी अच्छी तरह से कट रही है'
इस मिसरे में 'तरह' शब्द के साथ 'से' का प्रयोग उचित नहीं होता,मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
'ज़िन्दगी अच्छी तरह अब कट रही है'
'थोड़ी-थोड़ी छा गई थी धुंध गम की'
ये मिसरा उचित लगे तो यूँ कर लें:-
'ज़िन्दगी पर छाई थी जो धुंद ग़म की'
'हाल पूछा है हमारा आज उसने'
इस मिसरे में 'है' की जगह " जो" शब्द उचित होगा ।
आदरणीय बसंत जी बहुत ही अच्छी पेशकश ।
दिली मुबारकबाद ।
वसूल पाइएगा ।
सादर ।
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
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