अवसरवादी - लघुकथा –
आज शहर के लोक प्रिय नेताजी का जन्मदिन बड़े जोर शोर से मनाया जा रहा था। इस बार इतने सालों बाद बहुत खोज बीन के बाद ये पता चला कि नेताजी की असली जन्म तिथि दो अक्टूबर ही है।किसी को कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ क्योंकि नेताजी जिस जमाने में पैदा हुए थे उस वक्त स्कूल में दाखिले के समय कोई जन्म तिथि का प्रमाण पत्र माँगता भी नहीं था।बनवाने का रिवाज़ भी नहीं था।मुँह जुबानी जो भी तारीख बोल दी वही लिख दी जाती थी।
कैसा विचित्र संयोग था कि नेता जी का जन्म दिन भी बापू जी और शास्त्री जी के जन्म दिन के साथ था। लेकिन हमारे नेताजी की विचारधारा इन दोनों विभूतियों से कोई मेल नहीं खाती थीं। एक कहावत है हाथी के दाँत दिखाने के और खाने के और होते हैं। वह हमारे नेताजी पर सटीक बैठती थी। वैसे भी हमारे नेताजी किसी हाथी से कम थोड़े ही थे|
खाने पीने के शौकीन नेता जी आज गाँधी जयंती पर आर्य समाज मंदिर में बापू के आदर्शों का ढिंढोरा पीटते हुए शहर के तमाम गरीबों को दान पुन्य कर रहे थे।चुनाव के माहौल को सामने देखते हुए अच्छा खासा खर्चा किया था।जैसे कपड़े,खाने के पॉकिट,मिठाई के डब्बे और फ़ल इत्यादि।
सभी को नेताजी अपने हाथों से सम्मान पूर्वक वितरित कर रहे थे।
तभी उनकी नज़र भीड़ से अलग कोने में बैठे कुछ लोगों पर पड़ी।जो कि ढंग से तन भी ढके हुए नहीं थे। अंदर धंसे हुए पेट और पसलियाँ दिख रही थीं | देखने से ऐसा लगता था जैसे कई दिनों से भूखे हों।
नेताजी ने अपने सचिव से पूछा,"ये लोग कौन हैं और ये अलग क्यों बैठे हैं?"
"साहब ये लोग अछूत हैं।“
"यहाँ कैसे आ गये ये लोग?"
"सर आपने ही बुलाया था| कल जिस बस्ती में आप गये थे उसी बस्ती के लोग हैं।“
नेता जी को तुरंत याद आ गया कि कल ही तो इन लोगों को शराब और नोट बाँट कर आये थे। ये बात अलग है कि यह सब चोरी छिपे उनकी झोली में दूर से डाल रहे थे। "
उसी वक्त नेताजी की नज़र वहाँ मौजूद एक दो पत्रकारों पर पड़ी। नेताजी ने तुरंत पैतरा बदल लिया।
"क्या कहा अछूत? अरे तुम लोग पगला गये हो? ये तो सही माने में प्रभु के बंदे हैं। इन्हीं की बदौलत यह देश चल रहा है।"
और अचानक नेता जी उन लोगों की तरफ़ दौड़ पड़े,"अरे मंगलू तुमने तो हद कर दी।हमारे खास आदमी होकर तुम यहाँ अलग से बैठे हो। हमसे कोई भूल हो गयी क्या? चलो आओ हमारे साथ।"
और अगले क्षण नेताजी ने मंगलू को गले लगा लिया।
वे सभी लोग हैरान थे | क्योंकि मंगलू को मरे हुए दो साल हो गये थे |मगर नेताजी की बात कौन काटे ।
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी, हमेशा की तरह धारदार लघुकथा हुई है. नेतागण ऐसे ही अवसरवादी होते हैं. कैमरे के सामने उनके हाथी के दांत ही तो दिखते हैं. बहुत बहुत बधाई!
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
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