अब जब दामिनी चली गई है
चले जा चुके हैं उसके हत्यारे भी
वो नर पशु
जिनसे सब स्तब्ध रहे
दरिंदगी से त्रस्त रहे
हर तरफ मौत की मांग उठती रही
दबती रही उठती रही बिलखती रही
मेरी भी एक मांग रही
कि एक बार मुझे उन नर-पशुओं की माताओं से मिलाया जाए
पूछ पाऊँ उनसे
कौन से अँधेरे की औलादें थी वो
कौन से ज़हर की मुरादें थी वो?
धमनियों में क्या -क्या बहता रहा था
कानों में क्या कौन कहता रहा था?
दादा , नाना की गोदी भी खेले थे वो
नानी दादी के सुख- दुःख भी झेले थे वो ?
किसी राखी के धागे भी बांधे थे कभी
रिश्तों को दिए थे काँधे भी कभी ?
भाई के संग कोई रोटी भी बांटी थी
माता भी उनको क्या कभी डांटी थी?
चाची भाभी दादी नानी बुआ
किसी से कभी था मेल हुआ?
अगर वह सब हुआ,तो यह सब कैसे हो गया ?
रिश्तों का असर कैसे खो गया ?
भूल कहाँ कैसे ऐसे हो गयी ?
नर की संतान नराधम कैसे हो गयी
आदमी की औलादें
और पशुओं को भी पीछे छोड़ दें ?
एक कोख से निकले दूजी कोख झंझोड़ दें ?
अगर वह सब हुआ,तो यह सब कैसे हो गया
रिश्तों का असर कैसे खो गया ?
यह सब जानना बहुत ज़रूरी है
बेहद ज़रूरी है उन हालातों को समझना
और संजीदगी से खंगालना
जिसने इन को दरिंदगी सिखाई
हैवानियत की ऐसी पाठशाला पढ़ाई
और अब फांसी लगती रहे लगती ही जाए
देरी की धुंध में दया न रो जाए
हवालातों पर खूब खूब बात हो
पर हालातों पर भी बात हो ही जाए
ध्रतराष्ट्र की भी तो आँख खुले
गांधारी की आंखो से पट्टी उतर जाए
मिट जाएँ वो राज् वो राजसभाएं
जहाँ द्रोपदी की लाज न बच पाए
वो नीति मिट जाए राजनीति मिट जाए
मिट जाएँ वो जो हैं अंधे क़ानून
वो अँधे सिंहासन भी न बचें
मिट जाएँ सब सिरफिरे जनून
कुछ तो अँधियारा छंटे
कुछ तो आये कहीं से प्रकाश
कहीं तो हिले कुछ तो हिले
कही तो बने दामिनी को आस
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है
आज भी हालात वही चल रहे हैं
शिकार वही हैं दरिंदगी चालू है
बदले शिकारी फूल –फल रहे हैं
आज भी सब स्तब्ध हैं
नर पशुओं की दरिंदगी से त्रस्त हैं
अंतर केवल इतना है कि
अब पक्का बंदोबस्त है
शिकार साधनहीन हैं शिकारी पर वरदहस्त है
अंतर केवल इतना है कि
अब आवाज़ें गले मे घुटती हैं
और अब मौत की मांगे भी नहीं उठती है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी
आपकी टिप्पणी के लिए आभारी हूँ ।
आपके मंतव्य से सहमत हूँ कि माताएँ कभी बच्चों को गलत रास्ते पर नहीं धकेलती ।लेकिन मेरा आशय यह है कि यदि बच्चे पारिवारिक मौहौल मे रह कर भी सम्बन्धों को आदर नहीं देते हैं तो कमी कहाँ रह जाती है वह देखना ज़रूरी है ।अपराधी जो भी अपराध करते हैं उसके व्यक्तिगत और सामाजिक कारण होते हैं कोई अपराधी पैदा नहीं होता ।हमें उन परिस्थितियों को समझ कर उन्हे सुधारणा है वरना फाँसी के बाद ,एंकौंटर के बाद भी ये सिलसिले रुके तो नहीं ...ज़रूरत उस कारण को दूर करने की है जो उन्हें यह शह देते हैं ...जहां तक 'अंधेरे ' शब्द का प्रयोग है ।स्पष्ट रूप से यह अज्ञानता का रूपक है ॥गाली देने का तो सोचा भी नहीं जा सकता
आद0 अमिता तिवारी जी सादर अभिवादन
जहाँ तक मैं समझता हूँ माँ, माँ होती है और एक माँ कभी बच्चे को ग़लत वो भी इस तरह का, के रास्ते पर नहीं ढकेलती। इसलिए माता को दोषी ठहराना मेरे हिसाब से उचित नहीं। और माँ से पूछना कि ये औलादें किस अँधेरी की है, परोक्ष रूप से माँ को गाली देना है जो मेरी समझ से साहित्यिक नहीं है। शेष आप स्वयं निर्णय लीजिये। सादर
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