मन में जब है प्यास रे जोगी
क्या लेना सन्यास रे जोगी।१।
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महलों जैसे सब सुख भोगे
क्यों कहता बनवास रे जोगी।२।
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व्यर्थ किया क्यों झूठे मद में
यौवन का मधुमास रे जोगी।३।
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हम से कहता वासना त्यागो
छिप के करता रास रे जोगी।४।
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खुद ही जब ये निभा न पाया
औरों से क्या आस रे जोगी।५।
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मत कह बन्धन मुक्त हुआ है
तू भी हम सा दास रे जोगी।६।
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तन का है या मन का बतला
मुख पर जो आभास रे जोगी।७।
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हम जैसा ही तुझ को होगा
अन्त समय अहसाह रे जोगी।८।
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जब तक है यह मोह में डूबी
झूठी हर अरदास रे जोगी।९।
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जीव जगत में क्या मिथ्या है
समझा दे सायास रे जोगी।१०।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार। आ. समर जी की बात का संज्ञान ले लिया है । सादर.....
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
आदाब
बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने ,बधाई स्वीकार करें। कबीर साहिब की बातों का संज्ञान लें.
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति , उत्साहवर्धन व मार्गदर्शन के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'हम जैसा ही तुम को होगा'
इस मिसरे में 'तुम' की जगह "तुझ" शब्द उचित होगा ।
'समझा दो सायास रे जोगी'
इस मिसरे में 'दो' की जगह "दे'' शब्द उचित होगा ।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। बेहतरीन गज़ल।
हम से कहता वासना त्यागो
छिप के करता रास रे जोगी।४।
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