नहीं कुछ गाँव सा सुनता हुआ निष्ठुर नगर
दिखाने घाव मत जाना सखा निष्ठुर नगर।१।
*
उसे डर है कि उसके हित कमीं आजायेगी
नहीं देता किसी का भी पता निष्ठुर नगर।२।
*
नदी सूखी हुई कहती है प्यासे खेत से
तेरे हिस्से का पानी पी गया निष्ठुर नगर।३।
*
कहाँ तुम बात दुख की यार करते हो भला
खुशी तक में अकेला ही दिखा निष्ठुर नगर।४।
*
निकल पाया न खुद के व्यूह से सायास भी
भले चलने को नित मीलों चला निष्ठुर नगर।५।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, स्नेह व मार्गदर्शन के लिए आभार।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति, व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आ. भाई चेतन प्रकाश जी, सादर अभिवादन । गजल की प्रशंसा के लिए आभार ।
आ. भाई क्रिस मिश्रा जी, गजल पर उपस्थिति उत्साहवर्धन व सलाह के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,लेकिन ये मारूफ़ बह्र नहीं है, बहरहाल बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। लाज़वाब गज़ल।
नदी सूखी हुई कहती है प्यासे खेत से
तेरे हिस्से का पानी पी गया निष्ठुर नगर।३
वाहहह', क्या रचना है, जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर ' साहब क्या सफर किया है, आप
ने वाहहह ! यदि कहूँ कि ग़ज़ल के प्रारूप से चल कर गीत होते हुए नज़्म तक पहुँच गए, अतिशयोक्ति नही होगी !
बधाई स्वीकार करें !
आदरणीय बड़े भैया लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर, मंच की सीखने सिखाने की परम्परा नुसार आपका यह अनुज, इस ग़ज़ल पर अपनी बात रख रहा है ----
/नहीं कुछ गाँव सा सुनता( भूतकाल) हुआ निष्ठुर नगर (वर्तमान) / इस मिसरे में 'काल' सम्बन्धी दोष प्रतीत हो रहा है,
इसे यूँ कह सकते है--
नहीं कुछ गाँव सा सुनता, दुआ निष्ठुर नहर
दिखाने घाव मत जाना सखा निष्ठुर नगर।१।
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उसे डर है कि उसके हित कमीं आजायेगी-----यह मिसरा भी वाक्यविन्यास की दृष्टि से अधूरा सा लग रहा है।यूँ कहना शायद सही रहे---
उसे डर लाभ में उसके कमी आ जायेगी
नहीं देता किसी का भी पता निष्ठुर नगर।२।
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नदी सूखी हुई कहती है प्यासे खेत से
तेरे हिस्से का पानी पी गया निष्ठुर नगर।३। यह शेर उम्दा हुआ है दाद ही दाद।
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कहाँ तुम बात दुख की यार करते हो भला / यहाँ भी वाक्यविन्यास की कमी प्रतीत हो रही,
कहाँ तुम बात दुख की यार करते हो, यहाँ
खुशी तक में अकेला ही दिखा निष्ठुर नगर।४।
या
भला किससे मैं करता बात अपने दर्द की
खुशी तक में अकेला ही चला निष्ठुर नगर।४।
*
निकल पाया न खुद के व्यूह से सायास भी
भले चलने को नित मीलों चला निष्ठुर नगर।५। यह बेहतर शेर हुआ है आदरणीय।
सादर।
आ. भाई अरुण जी, सादर अभिवादन । आपकी प्रशंसा पाकर लेखन सार्थक होता लगा । इस स्नेह के लिए आभार ।
नदी सूखी हुई कहती है प्यासे खेत से
तेरे हिस्से का पानी पी गया निष्ठुर नगर।३
प्रिय मित्र लक्ष्मण धामी जी गज़ब लिखा ख़ास कर ये पंक्तियाँ मुझे बेहद सुकून दे गई
डॉ अरुण कुमार शास्त्री // एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त
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