2122/1212/22
1
साँप बनकर जो डस रहा है मुझे
दोस्त कह कर पुकारता है मुझे
2
उसका लहज़ा बता रहा है मुझे
अब न पहले सा चाहता है मुझे
3
दिल के चैन ओ सुकून की खातिर
ख़ुद को ख़ुद में ही ढूँढना है मुझे
4
हर घड़ी जिसको दिल में रखता हूँ
वो ही अंजान कह रहा है मुझे
5
क्यों पराया हुआ मैं अपनों में
यह सवाल अब भी सालता है मुझे
6
मय-कदे से उठा वो यह कह कर
घर भी 'निर्मल' सँभालना है मुझे
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
रचना जी का कमेन्ट कहाँ है?
सादर प्रणाम रचना जी
क्यों पराया हुआ मैं अपनों में........ बेहतरीन
बहुत खूब ग़ज़ल है बधाई स्वीकार करें
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