2122 1122 22
लाओ जंजीर मुझे पहना दो
मेरी तकदीर मुझे पहना दो
तुम ख़ुदा हो तो ये डर कैसा है
मेरी तहरीर मुझे पहना दो
जो भी चाहो वो सज़ा दो मुझको
जुर्म ए तामीर मुझे पहना दो
पहले काटो ये ज़ुबाँ मेरी फिर
कोई तज़्वीर मुझे पहना दो
मुफ़्लिसी ज़ुर्म अगर है मेरा
सारी ताजी़र मुझे पहना दो
आज आया हूँ मैं हक की खातिर
कोई तस्वीर मुझे पहना दो
मौलिक व अप्रकाशित
आज़ी तमाम
Comment
सादर प्रणाम आ नीलेश जी
हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय शुक्रिया
सादर
आ. आज़ी जी,
ग़ज़ल के लिए बढाई.. विद्वतजन सब कह ही चुके हैं
सादर
गुरु जी ये बदलाव किये हैं
पहले काटो ये ज़ुबाँ मेरी फिर
कोई तज़्वीर मुझे पहना दो
आज आया हूँ मैं हक की खातिर
आज तक़्सीर मुझे पहना दो
सादर प्रणाम आ गुरु जी
हौसला अफ़ज़ाई व मार्गदर्शन के लिये सहृदय शुक्रिया
दुरुस्त करने की कोशिश करूँगा गुरु जी
सादर
जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
गुणीजनों से सहमत हूँ ।
'जो भी चाहो दो सज़ा मुझको तुम'
इस मिसरे पर जनाब भाई धामी जी का सुझाव अच्छा है ।
'झूठ ए तदबीर मुझे पहना दो'
इस मिसरे पर धामी जी से सहमत हूँ,इज़ाफ़त का इस्तेमाल भी उचित नहीं ।
'मैं हूँ मुफ्लिस तो हाँ मुजरिम हूँ मैं'
इस मिसरे को यूँ कह सकते हैं:-
'मुफ़लिसी जुर्म अगर है मेरा'
'कोई तस्वीर मुझे पहना दो'
इस मिसरे पर जनाब रवि शुक्ल जी से सहमत हूँ ।
सादर प्रणाम आ रवि शुक्ला जी
मैं कोशिश करूँगा की रदीफ़ के साथ न्याय कर सकूँ
हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय शुक्रिया
सादर
आदरणीय आजी साहब गजल की उम्दा कोशिश हुई है मुबारक बाद पेश करता हूँ छाेटी बहर मे काम मुशिकल होता है । तस्वीर काे पहनाना शायद काफिया के साद रदीफ का निर्वहन न हो पाया है समर साहब की टिप्पणी से मुझे भी कुछ सीखने को मिलेगा। बहर हाल मुबारक बाद कुबूल करें
सादर प्रणाम आ धामी सर
हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय शुक्रिया
हाँ मुझे भी गुरु जी की राय का इंतज़ार है
आ. भाई आजी तमाम जी, गजल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई ।
तुम ख़ुदा हो तो ये डर कैसा(क्योंकर) है
//जो भी चाहो वो सज़ा दो मुझको
//झूठ ए तदबीर // वाक्यांश मेरे हिसाब से ठीक नहीं है। शेष आ. समर जी ही स्पष्ट करेंगे।
//हो के मुफ्लिस हुआ मुजरिम मैं गर
देखिएगा। सादर...
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