2122/2122/2122/212
है नहीं क्या स्थान जीवन भर ठहरने के लिए
जो शिखर चढ़ते हैं सब ही यूँ उतरने के लिए।१।
*
स्वप्न के ही साथ जीवन हो सजाना तो सुनो
भावना की कूचियाँ हों रंग भरने के लिए।२।
*
ये जगत बैठा के खुश हैं लोग यूँ बारूद पर
भेज दी है अक्ल सबने घास चरने के लिए।३।
*
खिल के आयेगी हिना भी सूखने तो दे सनम
रंग लेता है समय कुछ यूँ उभरने के लिए।४।
*
मौत का भय है न जिनको जुल्म वो सहते नहीं
जिन्दगी का लोभ काफी यार डरने के लिए।५।
*
सबसे पहले फूल अपनी राह के काँटे निकाल
है पड़ा जीवन समूचा यूँ सँवरने के लिए।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई ब्रिजेश जी, सादर आभार..
वाह वाह आदरणीय धामी जी खूब ग़ज़ल कही...सादर
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर पुनः उपस्थिति व सुझाव के लिए आभार । आपके द्वारा सुझाए दोनों मिसरे उचित हैं । सादर...
'सोच कर चढ़ते हैं जीवन भर ठहरने के लिए
वाध्य पर सब ही शिखर से हैं उतरने के लिए'
मतला अब ठीक है ।
'जीते जी जन्नत के जैसी सेठ को तो ये रही
और निर्धन जिन्दगी है रोज मरने के लिए'
इस शैर का ऊला उचित लगे तो यूँ कर लें:-
'सेठ को लगती है जीते जी ये जन्नत की तरह'
'लाज का घूँघट खजाना लुट गया जो एक बार
क्या बचा है पास उस के यार डरने के लिए'
इस शैर का ऊला उचित लगे तो यूँ कहें:-
'लाज का ही जब ख़ज़ाना लुट गया हो तो यहाँ'
आ. भाई अमीरुद्दी जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति सराहना मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद । मतले को इस प्रकार किया है देखिएगा-
*
सोच कर चढ़ते हैं जीवन भर ठहरने के लिए
वाध्य पर सब ही शिखर से हैं उतरने के लिए।१।
*
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति सराहना व मार्गदर्शन के लिए आभार। मतले को इस प्रकार किया है देखिएगा-
*
सोच कर चढ़ते हैं जीवन भर ठहरने के लिए
वाध्य पर सब ही शिखर से हैं उतरने के लिए।१।
*
आपके ये दोनों सुझाव बेहतरीन हैं-
//'रंग लेता है समय कुछ तो उभरने के लिए'
//'मौत का जिनको नहीं भय ज़ुल्म वो सहते नहीं'
*
दो नये शेर जोड़े हैं इन्हें भी देखिएगा-
*
जीते जी जन्नत के जैसी सेठ को तो ये रही
और निर्धन जिन्दगी है रोज मरने के लिए।*।
*
लाज का घूँघट खजाना लुट गया जो एक बार
क्या बचा है पास उस के यार डरने के लिए।*।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेगा ।
'रंग लेता है समय कुछ यूँ उभरने के लिए'
इस मिसरे में 'यूँ' शब्द की जगह "तो" शब्द उचित होगा ।
'मौत का भय है न जिनको जुल्म वो सहते नहीं'
इस मिसरे को उचित लगे तो यूँ कहें:-
'मौत का जिनको नहीं भय ज़ुल्म वो सहते नहीं'
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें। मतले पर नज़र्-ए-सानी फ़रमाएं। चौथे शे'र के सानी को अगर यूँ कहें तो : वक़्त लेती है हिना भी कुछ उभरने के लिए। शेष शुभ शुभ। सादर।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online