ग़ज़ल-221 1222 22 221 1222 22
इस बहर में मेरी ये पहली ग़ज़ल है यह मतला लगभग 2 वर्ष पहले हुआ था लेकिन यह ग़ज़ल पूरी नहीं हो रही थी इसका कारण यह है कि मैं इस बहर में सहज महसूस नहीं कर रहा था यह बहर मेरी समझ में ही नहीं आ रही आज किसी तरह यह पूरी हुई है जानकार लोग बताएं कि क्या यह बहर ठीक से निभाई गई है या नहीं....
मरने का बहाना मिल जाता, जीने की सज़ा से बच जाते,
इक बार कभी वो आ जाते जो आ न सके आते आते ।
महसूस कभी होता कैसे वो दर्द का रिश्ता टूट गया ,
खामोशी में भी शामिल थे तुम, तुम याद रहे हँसते गाते ।
जब टूट गया वो आईना जिसमें थी तेरी तस्वीरे वफा ,
इस टूटे जिया को कैसे हम दुनिया की कशिश से बहलाते।
है कौन से जन्मों का कर्जा जो मिट न सका मेरे सर से,
इक बार जरा मिलकर हम से तू दिखला जा मेरे सब खाते।
है आधी शबे गम ढलने को पूरी ये ग़ज़ल होती ही नहीं
मेरा ये अधूरा अफसाना तुम आके मुकम्मल कर जाते
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आज़ी जी, ये ब्रजेश जी की नहीं मनोज अहसास जी की कोशिश है :-)))
सादर प्रणाम आ ब्रजेश जी
बेहद खूबसूरत कोशिश है आपकी भी
गुरु जी का मशविरा तो सर आँखों पर
सादर
आदरणीय समर कबीर साहब नमस्कार
आपकी बहुमूल्य इस्लाह,बेशकीमती जानकारी से मुझे सदैव लाभ हुआ है
मेरी अधिकांश ग़ज़लें आपकी इस्लाह में हुई है
मैं दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ जो आपने इस ग़ज़ल को भी अपना आशीर्वाद दिया
सुधार करने का पूरा प्रयास करूंगा
कृपा बनाये रखिये
हार्दिक आभार
सादर
जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
सबसे पहले इस बह्र के बारे में बता दूँ कि ये हिन्दी की मात्रिक बह्र है और उर्दू से इसका कोई तअल्लुक़ नहीं,न ही ये उर्दू की अरूज़ की किताबों में मिलती है ये अलग बात है कि उर्दू वालों ने इसे अपनाया हुआ है,और उर्दू के कई बड़े शाइरों ने इस पर ग़ज़लें कही हैं,और फिल्मों में भी इस पर बहुत से गीत और ग़ज़लें मिलती हैं,जैसे:-
'दुनिया ये बदलने वाली है किस चीज़ प तू इतराता है'--जोश मलीहाबादी ।
'तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गये'--'मजाज़'
'दिन रात उन्हें ख़त लिखते हैं दिन रात दुआएँ देते हैं
फ़ुर्सत ही नहीं इन हाथों को अब चाक गरेबाँ कौन करे'--'शकील बदायूनी'
फिल्में:-
'रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह'--'मजरूह'
'छू लेने दो नाज़ुक होटों को कुछ और नहीं है जाम है ये--'साहिर'
और भी बहुत सी ग़ज़लें और गीत मिल जाएँगे ।
इस बह्र में एक ख़ास बात ये है कि दिये गये अरकान के इलावा इसकी तक़ती'अ फ़ेलुन फ़ेलुन पर भी हो सकती है ।
एक बात ये कि इस बह्र में शिकस्त-ए-हर्फ़-ए-नारवा ऐब की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं,जिससे बचना चाहिये ।
इस पर विस्तृत जानकारी पाने के लिये "ओबीओ लाइव तरही मुशाइर:'अंक-93 पढ़ें जिसमें 'जोश मलीहाबादी' का तरही मिसरा
'दुनिया ये बदलने वाली है किस चीज़ पे तू इतराता है' दिया गया था ।
अब आपकी ग़ज़ल देखते हैं ।
"मरने का बहाना मिल जाता, जीने की सज़ा से बच जाते,
इक बार कभी वो आ जाते जो आ न सके आते आते'
मतला ठीक है ।
'महसूस कभी होता कैसे वो दर्द का रिश्ता टूट गया ,
खामोशी में भी शामिल थे तुम, तुम याद रहे हँसते गाते'
इस शैर का सानी मिसरा कुछ और मिहनत चाहता है ।
'जब टूट गया वो आईना जिसमें थी तेरी तस्वीरे वफा ,
इस टूटे जिया को कैसे हम दुनिया की कशिश से बहलाते'
ठीक है ।
'है कौन से जन्मों का कर्जा जो मिट न सका मेरे सर से,
इक बार जरा मिलकर हम से तू दिखला जा मेरे सब खाते'
इस शैर में शुतर गुरबा दोष है,और सानी मिसरा कुछ और मिहनत चाहता है ।
'है आधी शबे गम ढलने को पूरी ये ग़ज़ल होती ही नहीं
मेरा ये अधूरा अफसाना तुम आके मुकम्मल कर जाते'
ऊला में ग़ज़ल और सानी में अफ़साना? ग़ौर करें ।
आदरणीय मनोज जी बहर चलन में है या नहीं ये तो जानकर लोग ही बताएंगे..लेकिन आपने निभाया खूबसूरती से है।हालाँकि तीसरे और चौथे शे'र को मैं उस लय में नहीं पढ़ पा रहा हूँ जिसमें बाकी पढ़े हैं।सादर
सादर आभार आदरणीय अमीर साहब
यह बहर मैंने कबीर साहब से सुनी थी और उन्होंने मुझे इसके बारे में बताया था बाकी का मशवरा वही देंगे आपकी ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफजाई के लिए हार्दिक शुक्रिया साहब
हार्दिक आभार
जनाब मनोज अहसास जी आदाब, आपने जिस तरह से बह्र के अरकान लिखे हैं उससे असमंजस की स्थिति है क्योंकि इस तरह की कोई प्रचलित बह्र शायद नहीं है, यदि है तो इस बह्र का नाम बताने की ज़हमत फ़रमाएं, इसके इलावा यदि आप इसे 32 रुक्नी बह्र-ए-मीर कहेंगे या बह्र-ए-ज़मज़मा/मुतदारिक मुसम्मन मुज़ाईफ़ जो "फ़ेलुन-22फ़इलुन-112फ़ेलुन-22फ़ेलुन-22फ़ेलुन-22फ़इलुन-112फ़ेलुन-22फ़ेलुन-22'' पर आधारित है तो ये अलग बात है। बहरहाल ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, मतला ख़ूूूबसूरत है, बधाई स्वीकार करें।
'खामोशी में भी शामिल थे तुम, तुम याद रहे हँसते गाते' इस मिसरे में लफ़्ज़ 'खामोशी' (ख़ामुशी212) या (ख़मोशी 122) ऊपर ज़िक्र की गयी किसी बह्र के मुताबिक़ नहीं है। सादर।
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