२२१/२१२१/१२२१/२१२
शीशा भी लाया आज वो लोहे में ढालकर
बोलो करोगे आप क्या पत्थर उछाल कर।१।
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जिन्दा ही दफ्न सत्य जो कल था किया गया
लानत समय ने आज दी मुर्दा निकालकर।२।
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वो बिक गयी है वस्तु सी बेहाल भूख से
अब क्या रखोगे बोलिए उस को सँभालकर।३।
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केवल किसान जानता मौसम की मार को
हम ने तो देखा बीज न खेतों में डालकर।४।
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रोटी का मोल जानते बचपन से ही बहुत
माँ ने खिलाया खूब है पानी उबालकर।५।
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काँटों को रखता तेज है उनका स्वभाव ही
तीखे किये वो किसने भला छील छालकर।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
तरमीम , पढ़ें, कृपया !
पुनश्च, और, एक बात, , पाँचवे शे'र का सानी शाब्दिक तमीम चाहता है । वस्तुत: 'खिलाया ' के स्थान पर पिलाया होना चाहिए , बंधुवर !
आदाब अच्छी ग़ज़ल हुई, जनाब लक्ष्मण सिंह मुसाफिर साहब, ! मतला, आप फिर देखिए, मुझे रब्त का अभाव लगा ! सादर
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति स्नेह और उत्साहवर्धन केलिए आभार।
बेहतरीन ग़ज़ल । हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी ।
रोटी का मोल जानते बचपन से ही बहुत
माँ ने खिलाया खूब है पानी उबालकर।५।
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