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बेवज़्ह मुझे रोने की आदत भी बहुत थी...( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

221-1221-1221-122

बेवज़्ह मुझे रोने की आदत भी बहुत थी
पर मुझको रुलाने में सियासत भी बहुत थी (1)

माज़ी को भुला कर मियाँ अच्छा किया मैंने
रखने में उसे याद अज़ीयत भी बहुत थी (2)

मैंने भी बुझा दी थीं वो जलती हुई शम'एँ
कमरे में हवाओं की शरारत भी बहुत थी (3)

है मुझसे अदावत उन्हें अब हद से ज़ियादा
था और ज़माना वो महब्बत भी बहुत थी (4)

ज़ालिम की शिकायत भी करें तो करें किससे
हाकिम की उसी पर ही इनायत भी बहुत थी (5)

दिखने में बहुत सख़्त था पत्थर की तरह वो
फूलों सी मगर उनमें नज़ाक़त भी बहुत थी (6)

वैसे भी अलग होना था इक दिन हमें 'सालिक'
थे पास मगर हम में मसाफ़त भी बहुत थी (7)

* मौलिक एवं अप्रकाशित

©सालिक गणवीर

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 18, 2021 at 9:46pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब,

 //मतले पर आपकी टिप्पणी से मैं इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता//

भाई साहब बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि आप इत्तेफ़ाक़ ही रखें, आपका नज़रिया आप ही समझ सकते हैं, मगर अपनी रचना पर पाठकों को टिप्पणी और विश्लेषण करने की जो अनुमति आपने दे रक्खी है उस लिबर्टी के तहत मतले को आपके नज़रिए से मैं समझना चाहता हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि 

जो बेवज्ह ही रोने का आदी हो उसे रुलाने के लिए सियासत-दानों को जद्दोजहद करने की क्या ज़रूरत थी? इस में ज़रूर कोई बारीक नुक़्ता होगा जो सिर्फ़ आप ही बता सकते हैं। 

'बेवज़्ह मुझे रोने की आदत भी बहुत थी / पर मुझको रुलाने में सियासत भी बहुत थी'  

शेष बिन्दुओं/शंकाओं पर मैं भी गुणीजनों के बेशक़ीमती नज़्रियात व मशविरों का मुन्तज़िर रहूँगा।  सादर। 

 

 

Comment by सालिक गणवीर on August 17, 2021 at 7:30pm

मुहतरम Chetan Prakash ' साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए आपका तह -ए -दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।

Comment by सालिक गणवीर on August 17, 2021 at 7:30pm

मुहतरम  अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए आपका तह -ए -दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। मतले पर आपकी टिप्पणी से मैं इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता मुहतरम ,मुआफ़ करें। मद्दाह साहिब की लुग़त में अज़ीयत लिखा है इसलिए मैंने भी यही इस्तेमाल किया है. आदरणीय। अगर उस्ताद जी भी ऐतराज करते हैं तो दुरुस्त कर दूंगा। वह का बहुवचन वे या वो होता है साहिब तो वो का सम्बन्ध तो उनमें ही होना चाहिए। तनाफ़ूर तब होता जब पहले शब्द का आखिरी अक्षर और असके बाद के शब्द का प्रथम अक्षर समान होता। सादर।

Comment by Chetan Prakash on August 17, 2021 at 11:45am

आदाब, सालिक गणवीर साहब, ग़ज़ल का बेहतर प्रयास है, किन्तु 'अमीर' साहब ने जो सुझाया, उससे मैं सहमत हूँ! 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 17, 2021 at 12:53am

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ख़ूबसूरत और मे'यारी ग़ज़ल कहने के प्रयास के लिए आपको मुबारकबाद पेश करता हूँ। माज़रत के साथ अर्ज़ करना चाहता हूँ कि, 

' बेवज़्ह मुझे रोने की आदत भी बहुत थी
पर मुझको रुलाने में सियासत भी बहुत थी'     इस शे'र के मिसरों में रब्त नहीं है क्योंकि सानी मिसरे में कही गई बात ऊला में आये लफ़्ज़ 'बेवज्ह' की वज्ह से पस्त, कमज़ोर और बेमानी हो जाती है, यानि ऊला मिसरा सानी में कही जा रही बात को तक़्वियत नहीं दे रहा है। चाहें तो ऊला यूँ कर सकते हैं:

'कहते हैं मुझे रोने की आदत भी बहुत थी'

'रखने में उसे याद अज़ीयत भी बहुत थी'      इस मिसरे में सही लफ़्ज़ 'अज़िय्यत' है। 

'हाकिम की उसी पर ही इनायत भी बहुत थी'   इस मिसरे में 'ही' के बदले 'जो' कहना ज़्यादा मुनासिब होगा।

'दिखने में बहुत सख़्त था पत्थर की तरह वो

 फूलों सी मगर उनमें नज़ाक़त भी बहुत थी'     इस शे'र में शुतरगुर्बा दोष है, ग़ौर कीजियेगा। 

'थे पास मगर हम में मसाफ़त भी बहुत थी'      इस मिसरे में तनाफ़ुर है, चाहें तो यूँ कर सकते हैं:

'कहने को थे हम साथ मसाफ़त भी बहुत थी'     सादर ।

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