झाड़ू -पोंछा कर रही
अन्तर में अनुराग
स्वस्थ रहें सब, उल्लसित
हृदय भैरवी राग
दाल, सब्जियाँ पक रहीं
उफन रही है प्रीत
क्यों ना खा सब तृप्त हों?
जब पवित्र मन मीत
चकले पर रोटी बिली
तवे पकाया प्यार
उमग खिलाती प्रेम से
गृहणी नेह सम्हार
बरतन हैं जब मँज रहे
सृजन हो रहा गीत
ताल बद्ध , लय बद्ध हो
बजता नव संगीत
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ पान्डेय जी, हार्दिक धन्यवाद आपका।आपको रचना सार्थक लगी , जानकर खुशी हुई ।आपके सुझाव का ध्यान रक्खूँगी।
सादर प्रणाम
वाह ! .. बहुत् ही सार्थक दोहे हुए हैं. भावपक्ष अत्यंत उदार है.
शैल्पिक रूप से उमग प्रेम से खिलाती को व्यवस्थित कर लें, तो आपकी प्रस्तुति दोहा छंद को प्रासंगिक आयाम देती हुई है, आदरणीया ऊषा अवस्थी जी.
हार्दिक बधाइयाँ
शुभ-शुभ
आ0 लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी ,सादर प्रणाम।
आपके कथन को मैं समझ गई। आपका और समर कबीर जी का बहुत शुक्रिया।
आ. ऊषा जी, सादर अभिवादन। दोहों का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई। आ. भाई समर जी द्वारा बताये चरण को यूँ करके सुधारा जा सकता है - उमग खिलाती प्रेम से।
आदरणीय समर कबीर साहेब, आपकी प्रतिक्रिया पाकर खुशी हुई ।
सच कहूँ तो मैंने यह सोच कर लिखा ही नहीं कि मैं किस विधा में लिख रही हूँ। संगीत की थोड़ी - बहुत जानकारी के अनुसार जब मुझे लगता है कि यह लय में आ रही है,मैं उसे लिख लेती हूँ। जब मैं उसे बोलूँगी तो वह उचित मात्राओं में ही रहेगी ।जब कुछ भाव उठते हैं , ऐसा ही करती हूँ।किन्तु आपने इस ओर मेरा ध्यान दिलाया , हार्दिक आभार आपका। कोशिश करूँगी।
मुहतरमा ऊषा अवस्थी जी आदाब, दोहों का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें ।
एक निवेदन ये है कि रचना के साथ उसकी विधा भी लिख दिया करें तो नये लिखने वालों को टिप्पणी करने में आसानी होगी ।
'उमग प्रेम से खिलाती
गृहणी नेह सम्हार'
इस पंक्ति के विषम चरण का अंत 212 पर नहीं है,देख लें ।
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