122 - 122 - 122 - 122
(भुजंगप्रयात छंद नियम एवं मात्रा भार पर आधारित ग़ज़ल का प्रयास)
दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ
कि सारा जहाँ देश होगा हमारा
हदों के निशाँ मैं मिटाने चला हूँ
हवा ही मुझे वो पता दे गयी है
जहाँ आशियाना बसाने चला हूँ
चुभा ख़ार सा था निगाहों में तेरी
तुझी से निगाहें मिलाने चला हूँ
ख़तावार हूँ मैं सभी दोष मेरे
दिलों से ख़राशें हटाने चला हूँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आभार आ. अमीरुदीन अमीर साहब.
सहीह हो सहीह कहना मेरी आदत है .
सादर धन्यवाद
ग़ज़ल और मतले पर हुई चर्चा में भाग लेने वाले सभी गुणीजनों का आभार व्यक्त करते हुए, ख़ासतौर पर आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी का बेहद ममनून और मश्कूर हूँ कि उन्होंने बहुत सारे मुस्तनद शाइरों के मक़बूल और मा'रूफ़ कलामों की मिसालों के ज़रिए से ख़ाकसार की ग़ज़ल और दलाइल को तक़्वियत और मक़बूलियत बख़्शी और ग़ज़ल के मतले को तमाम सबूतों की रौशनी में सहीह और बे-ख़ता साबित किया। सादर।
//यहाँ पर मैं उन के आलेख से सहमत नहीं हूँ. उनके अनुसार रहे और कहे आदि में इता दोष होगा-यह कथ अपने आप में दोषपूर्ण है . यह ए मात्रिक काफिया है. मात्रा से पहले का वर्ण भिन्न होने से कोई इता दोष हो ही नहीं सकता//
आदरणीय, जैसा कि मैं निवेदन कर चुका हूँ, मेरी ओर से चर्चा में आगे बने रहना संभव नहीं है. जितना मैं जानता हूँ, वह मैंने कह दिया. अब कोई न माने, तो अन्यथा कहना-सुनना फिर कोई मायने नहीं रखता.
रोला छंद के भी मूलभूत नियम होते हैं न ? राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी ने भारत-भारती में इस छंद का विपुल प्रयोग किया है लेकिन उन्होंने इस छंद में एक सीमा के बाहर जाकर भी बहुत-बहुत छूट ली है. इतना कि इस छंद का विधान ही अनुचित प्रतीत होता है. तो इसका क्या अर्थ लिया जाय, कि रोला छंद का विधान ही खारिज हो चुका है ? ऐसा कर दिया जाय ? क्या विधान को ही अतार्किक घोषित कर दिया जाय ? आदरणीय, कोई सचेत अभ्यासी इसकी अनुमति नहीं देगा. आप-हम जिस विन्यास को बहर-ए-मीर कहते हैं, उसका तो काएदे से ज़िक्र तक नहीं है. अरूज के कई विद्वान उसे काबिल बहर ही नहीं मानते. तो क्या मीर को हम खारिज कर दें ? मीर अपने हिसाब से काम करते रहे. उसी समझ से तो छंद-ग़ज़लों का प्रचार बढ़ रहा है.
आदरणीय, रचना-कर्म को लेकर कवि-शाइरों की अपनी सीमाएँ हुआ करती हैं तथा उनका अपना हेतु हुआ करता है. कई बार रचनाकार विधान-विन्यासों आगे निकल जाता है. और उसकी रचनाएँ अपवाद के तौर पर ही सही समाज और साहित्य द्वारा स्वीकार कर ली जाती हैं. लेकिन रचना के छंद या अरूज को खारिज करने की लापरवाही और जिद समाज और साहित्य नहीं पाला करता.
सर्वोपरि, एक बात हमें याद रखनी होगी, कि ओबीओ के होने का निहितार्थ, इसका तात्पर्य और हेतु हम जब-जब भूलेंगे, तब-तब हम ऐसी बहसों और चर्चाओं को आहूत करेंगे जो तर्क की कसौटी पर इतर जाती हुई प्रतीत होंगीं. मेरे द्वारा ’चर्चा-समाप्त’ कहा जाना इसी की ओर इंगित है, कि मेरी ओर से चर्चा में बने रहना संभव नहीं हो पा रहा है. यदि संभव होता तो मैं पटल पर कई और रचनाएँ पढ़ लेता.
विश्वास है, आप मेरे निवेदन का अन्वर्थ समझ पाए हैं. अब इसके आगे जिन्हें चर्चा करनी है, करें. इस पटल पर कई ऐसे विद्वान हैं जो मुझसे बहुत अधिक जानते-बूझते-समझते हैं. लेकिन इस बात को बिसराना नहीं है कि ओबीओ सदैव विधाओं के मूलभूत नियमों के पालन का आग्रही रहा है. इसी बिना पर कई रचनाएँ विगत में पटल से और इसके आयोजनों से भी इस कारण हटायी जा चुकी हैं, कि वे मूलभूत विधान का पालन नहीं करतीं थीं. इसे चाहे तो ओबीओ का आग्रह कह सकते हैं. जिसे आपत्ति हो वह अपनी सोच पर बना रह सकता है. किन्तु पटल पर तो वही बात कही जाएगी जो विधाओं के मूलभूत नियमों को संतुष्ट करने से सम्बन्धित हो.
पुनः, ग़ज़ल किसी भाषा की टेक मात्र नहीं है. ऐसी कोई सोच ग़ज़ल को एक विधा के तौर पर न केवल संकुचित करती है, इसके पददलित होने के मार्ग प्रशस्त करती है. ग़ज़ल के पुनरुत्थान से सम्बन्धित बिन्दुओं का संज्ञान हम लें तो बात स्पष्ट हो पाएगी. भाषा और विधान के बीच का भेद क्जबतक हम नहीं स्थापित करेंगे, अतार्किक बहस करेंगे. भाषा और इसके शब्द किसी विधा के विधान का हिस्सा नहीं होते. अन्यथा नेपाल देश में ग़ज़ल को लेकर जो जागृति क्रांतिकारी आंदोलन का रूप ले चुकी है, वह हास्यास्पद उफान मात्र साबित हो कर रह जाएगी. विश्वास है, मेरे कहे को पूरे परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करेंगे. मैं किसी भारतीय भाषा का नाम नहीं ले रहा.
आप सभी ने मुझे पढ़ा, सुना, मैं सादर आभारी हूँ.
शुभातिशुभ
श्री पंकज सुबीर के जिस आलेख का हवाला आपने दिया है उसका स्क्रीन शॉट यहाँ सलग्न है .
यहाँ पर मैं उन के आलेख से सहमत नहीं हूँ. उनके अनुसार रहे और कहे आदि में इता दोष होगा-यह कथ अपने आप में दोषपूर्ण है . यह ए मात्रिक काफिया है. मात्रा से पहले का वर्ण भिन्न होने से कोई इता दोष हो ही नहीं सकता ..
ग़ज़ल के एक सबसे सशक्त हस्ताक्षर हबीब जालिब साहब का मतला देखें
.
बड़े बने थे 'जालिब' साहब पिटे सड़क के बीच
गोली खाई लाठी खाई गिरे सड़क के बीच... यहाँ पिट और गिर दोनों सार्थक शब्द हैं प्रचलित हैं फिर भी दोष नहीं है ..
अमीर साहब की ग़ज़ल पर आते हुए
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वो कहाँ साथ सुलाते हैं मुझे
ख़्वाब क्या क्या नज़र आते हैं मुझे.. मोमिन
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कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते अहमद फ़राज़
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उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं.. दाग़ ( उर्दू ग़ज़ल की नियमावली तय करने वाले पहले अरूज़ी)
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नामा-बर आते रहे जाते रहे
हिज्र में यूँ दिल को बहलाते रहे कुं. महेंद्रसिंह बेदी
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कुछ तो मुश्किल में काम आते हैं
कुछ फ़क़त मुश्किलें बढ़ाते हैं
अपने एहसान जो जताते हैं
अपना ही मर्तबा घटाते हैं.. मुमताज़ राशिद
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तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या
क़ब्ज़े पे हाथ रख के डराते हो हम को क्या
गुलाम मुसहफ़ी हमदानी ..
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कोई मिलता नहीं ये बोझ उठाने के लिए
शाम बेचैन है सूरज को गिराने के लिए ...अब्बास ताबिश
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बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया.. हफ़ीज़ मेरठी
यदि यह सब दोषपूर्ण हैं तो ... शिव शिव
सादर
आ. सौरभ सर,
चर्चा में कहीं श्री पंकज सुबीर साहब का ज़िक्र पढ़ा था.. उन्हीं के ऑनलाइन आलेख का स्क्रीन शॉट साझा कर रहा हूँ ..
योजित काफिया बचाऊं और सुनाऊं पर गौर करें.. इससे आप के मन का संशय दूर होगा ..
आलेख 26 फरवरी 2008 का है और हिन्द युग्म पर उपलब्ध है
आप जिसे दोष बता रहे हैं वह अस्ल में दोष है ही नहीं ..
सादर
//चर्चा समाप्त//
जनाब सौरभ पाण्डेय जी, क्या ये आदेश है?
मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप कैसी चर्चा कर रहे हैं, जनाब अमीरुद्दीन साहिब ने आपसे जो प्रश्न किये हैं उनके उत्तर देना भी आपकी ज़िम्मेदारी में शामिल है, उन्हें तो आपने नज़र अंदाज़ ही कर दिया । जबकि ये चर्चा उन्हीं के मतले पर हो रही है ।
लिखने और केवल लिखने मात्र को परिचर्चा का अंग नहीं कह सकते. पढ़ना और पढ़े को गुनना भी उतना ही जरूरी हिस्सा है. मेरी टिप्पणियों में सारी बातें लिखी हुई हैं. उन पंक्तियों को ठहर कर पढ़ा जाय तो अनावश्यक बहसबाजी से इतर तार्किक समझ-बूझ के बिन्दु प्रश्रय पाएँगे. सो, जो कुछ चर्चा की जगह होने लगा, वह चर्चा नहीं कुछ और ही है.
विधान के अनुरूप ही कोई रचनाकर्म होता है. लेकिन कई बार विधान का दायरा टूटता है, फिर भी रचनाएँ अपने भाव और भाग्य से मान और जीवन पा जाती हैं. लेकिन ऐसी रचनाएँ अपवादों की श्रेणी में गिनी जातीं हैं. उन अपवादों को कभी नियम के अंतर्गत मान्य नहीं मान लिया जाता. ऐसी रचनाओं को अपना साहित्यिक समाज तथा संस्कार आर्ष-रचना या आर्ष-वाक्य कह कर अपना लेता है. लेकिन सारी विधाच्यूत रचनाएँ आर्ष-रचनाएँ नहीं मान ली जातीं. इस तथ्य को भी इशारों में मैंने उद्धृत कर दिया था.
दोष की चर्चा तो होगी ही, चाहे सैकड़ों उदाहरण क्यों न प्रस्तुत किये जायँ. भले कोई माने, न माने.
चर्चा समाप्त.
जनाब बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
आ. सौरभ सर ,
मंच की परम्परा रही है की दोष हो या न हो, संशय मात्र होने पर भी विस्तृत चर्चा की जाती है. मैं भी इसी परम्परा से सीखा हूँ . यहीं से सीखा हूँ.
मेरी किसी टिप्पणी से आप आहत हुए हों अथवा मैंने अगर बात को आवश्यकता से अधिक खेंच दिया हो तो मैं सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगता हूँ.
अन्य सभी बातों को परे करते हुए अमीर साहब की ग़ज़ल के मतले पर यही कहूँगा कि योजित अक्षर से पहले आ की ध्वनी पर दो भिन्न वर्ण हैं अत: काफ़िया दुरुस्त है.
सादर
पुन: क्षमा
जो कहा है मैंने उसका समर्थन कर रहे हैं आप लोग. लेकिन साबित क्या करना चाहते हैं ? कि, दोष आदि पर कोई चर्चा न करे ?
आ० नीलेश जी ???
हम चर्चा कर रहे हैं या कुछ और ? लिखा हुआ पढ़ भी रहे हैं ?
आ० अमीरुद्दीन जी पटल पर नए हैं. उनसे अभी कुछ न कहूँगा.
हम चर्चा स्पष्टत: बंद करें.
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