उसकी आँखें जो बोलती होतीं
कितने अफ़्साने कह रही होतीं
यूँ ख़ला में न ताकती होतीं
सिम्त मेरी भी देखती होतीं
काश आँखें मेरी इन आँखों से
हर घड़ी बात कर रही होतीं
उसकी आँखें जो बोलती होतीं...
देखकर मुझको मुस्कराती वो
अपनी आँखों में भी बसाती वो
जब कभी मुझसे रूठ जाती वो
मुझको आँखों से ही बताती वो
मेरे आने की राह भी तकतीं
नज़रें बस दरपे ही टिकी होतीं
उसकी आँखें जो बोलती होतीं...
देख कर तुझको यूँ ही ना-बीना
हुआ जाता है छलनी ये सीना
काश आ जाए काम कुछ जीना
तुझको देखूँ ब-दीदा-ए-बीना
दिल के अहवाल सारे कह देतीं
काश नज़रें न यूँ झुकी होतीं
उसकी आँखें जो बोलती होतीं...
वक़्त ऐसा ज़रूर आयेगा
जब इन आँखों में नूर आयेगा
तेरी नज़रों के जाम छलकेंगे
और मुझ पर सुरूर छायेगा
चाहे जितनी अँधेरी हों रातें
सुब्ह पर भारी वो नहीं होतीं
उसकी आँखें जो बोलती होतीं...
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी। सादर।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। अच्छी नज्म हुई है । हार्दिक बधाई।
मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, नज़्म पर आपकी आमद, इस्लाह और दाद-ओ-तहसीन के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ। देखता हूँ कहाँ कमी रह गई है। सादर।
जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब, नज़्म का प्रयास अच्छा है,लेकिन नज़्म अभी और कसावट चाहती है, बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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