221 - 1222 - 221 - 1222
ये दर्द मिरे दिल के कब दिल से उतरते हैं
दिल में ही किया है घर सजते हैं सँवरते हैं
आती हैं बहारें तो खिलते हैं उमीदों से
गुल-बर्ग मगर फिर ये मोती से बिखरते हैं
जब टूटे हुए दिल पर तुम ज़र्ब लगाते हो
पूछो न मेरे क्या क्या जज़्बात उभरते हैं
पैवस्त ज़माने से थे जो मेरे सीने में
अब दर्द वही फिर से रह-रह के उभरते हैं
देखे हैं मुक़द्दर तो बिगड़े हुए बनते भी
तक़दीर के मारों के कब भाग सँवरते हैं
चाहत है डराने की तुमको जो हमें सुन लो
हम ख़ाक-नशीं बस इक अल्लाह से डरते हैं
पहले तो बना लेते दीवाना अदाओं से
फिर दिल में बसाने के वा'दे से मुकरते हैं
क्या हमको दिखाएंगे राहें वो मुहब्बत की
बचपन से इसी रस्ते हम रोज़ गुज़रते हैं
याराँ की मुहब्बत को लीजै न यूँ हल्के में
जन्नत ही नज़र आती जब बाहों में भरते हैं
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
क्या कहने आदरणीय अमीरुद्दीन जी...बड़ी ही खूब ग़ज़ल कही..सादर
मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी तशरीफ़ आवरी पर ख़ुश आम-दीद, दाद-ओ-तहसीन और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
//'जन्नत ही नज़र आती जब बाहों में भरते हैं '
इस मिसरे को यूँ कहें तो रवानी बढ़ जाएगी:-
'जन्नत नज़र आती है जब बाँहों में भरते हैं'// बहतरीन मशविरा, मगर...
मुहतरम माज़रत के साथ अर्ज़ करना है कि मेरे इस मिसरे में 'ही' मेरे जज़्बात (ख़याल) की ज़्यादा सटीक अक्कासी करता है। हालांकि आ. निलेश जी ने भी 'ही' की जगह 'है' करने का इशारा दिया था।
यहाँ मैं बताना चाहता हूँ कि मेरा कहना है कि सिर्फ़ "जन्नत ही नज़र आती है" और कुछ नहीं...
'क्या ख़ूब कहा' और 'क्या ही ख़ूब कहा'... 'मज़ा आ गया' और 'मज़ा ही आ गया' में जो फ़र्क़ है उसी के मद्देनज़र 'ही' को लिया है।
उम्मीद है मैं अपनी बात कह सका हूँ। सादर।
जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल कही आपने, बधाई स्वीकार करें ।
'जन्नत ही नज़र आती जब बाहों में भरते हैं '
इस मिसरे को यूँ कहें तो रवानी बढ़ जाएगी:-
'जन्नत नज़र आती है जब बाँहों में भरते हैं'
मुहतरम निलेश जी, दोबारा तशरीफ़ आवरी पर ख़ुश आम-दीद और ज़र्रा नवाज़ी का बहुत शुक्रिया। सादर।
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
तरमीम के बाद मिसरा और निखर उठा है,
ढेरों बधाईयाँ
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और दाद-ओ-तहसीन से नवाज़ने के लिए आपका शुक्रिया। सादर।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय निलेश शेवगाँवकर 'नूर' साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, दाद-ओ-तहसीन से नवाज़ने और इस्लाह के लिए शुक्रिया।
इस्लाह पर आपके दोनों बिन्दुओं/ बातों से सहमत हूँ, 'गुल-बर्ग सभी फिर ये मोती से बिखरते हैं' पर आपकी क्या राय है, बताइयेगा। सादर।
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
अच्छी ग़ज़ल हुई है .. बधाई स्वीकार करें..
पत्तों के टूटने कि तुलना मोती के बिख़रने से होना अटपटा लगा
.
यारां की मुहब्बत को लीजै न यूँ हल्के में
जन्नत है नज़र आती जब बाहों में भरते हैं ... जैसा कुछ ..फिर भी यारा. के साथ भरता है अधिक दुरुस्त होता
.
शेष शुभ
सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online