221 - 2122 - 221 - 2122
इन्साफ़ बेचते हैं फ़ैज़ान बेचते हैं
हाकिम हैं कितने ही जो ईमान बेचते हैं
अज़मत वक़ार-ओ-हशमत पहचान बेचते हैं
क्या-क्या ये बे-हया बे-ईमान बेचते हैं
मअ'सूम को सज़ा दें मुजरिम को बख़्श दें जो
आदिल कहाँ के हैं वो इरफ़ान बेचते हैं
घटती ही जा रही है तौक़ीर अदलिया की
जबसे वहाँ के 'लाला' 'सामान' बेचते हैं
उनके दिलों में कितनी अज़मत ख़ुदा की होगी
पत्थर तराश कर जो भगवान बेचते हैं
क़ानूनी चारा-जोई मज़लूम की हो कैसे
वुकला हुनर का महँगा फ़ैज़ान बेचते हैं
पेशा ही बन गया है झूटी गवाही जिनका
सिक्कों के बदले में वो ईमान बेचते हैं
मंदिर तो न्याय का है इन्साफ़ ही नहीं बस
ख़ुद 'देवता' यहाँ के फ़ैज़ान बेचते हैं
कमज़र्फ़ 'अमीर' जब से बनने लगे हैं मुंसिफ़
मिलते ही अच्छी क़ीमत फ़रमान बेचते हैं
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, ज़र्रा नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल कही आपने, बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है । हर शेर वर्तमान सच्चाई लिए है। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया जनाब। सादर।
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर ।
हार्दिक बधाई आदरणीय अमीरुददीन 'अमीर' साहब जी। लाजवाब ग़ज़ल
पेशा ही बन गया है झूटी गवाही जिनका
सिक्कों के बदले में वो ईमान बेचते हैं ।
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