2122 2122 212
आख़िरश वो जिसकी ख़ातिर सर गया
इश्क़ था सो बे वफ़ाई कर गया
आरज़ू-ए-इश्क़ दिल में रह गई
जुस्तजू-ए-इश्क़ से दिल भर गया
दिल की दुनिया दर्द का बाजार है
दर-ब-दर कहते हुए मुज़्तर गया
हर दफ़ा सोचा की नजरें फेर लूँ
हर दफ़ा सज़दे में तेरे सर गया
भूलने की कोशिशें की थीं मगर
जो मिला वो ज़िक्र तेरा कर गया
ज़िंदगी भी आख़िरश तंहाई है
मैं भला तंहाई से क्यों डर गया
मैंने तेरी याद में ही काट दी
लौटना था पर न अपने घर गया
अब मगर दिल में कोई जुम्बिश नहीं
इतनी ख़ामोशी की जैसे मर गया
मौलिक व अप्रकाशित
आज़ी तमाम
Comment
सहृदय शुक्रिया आदरणीय नीलेश जी
मैंने ' में ' पर इतना गौर नहीं किया था
आपका तहे दिल से शुक्रिया जी मैं आपसे सहमत हूँ में भर्ती का हो रहा है
बदलने का प्रयास करता हूँ
सादर
आ. आज़ी भाई,
आख़िरश का अर्थ ही अंतत: हुआ ..फिर इस में //में// का क्या काम .
ग़ज़ल के लिए बधाई
सहृदय शुक्रिया आ ब्रज जी सब आप लोगों का मार्गदर्शन है
सादर
वाह बड़ी ही अच्छी ग़ज़ल कही भाई आजी...बधाई
बहुत बहुत शुक्रिया आ अमीर जी ग़ज़ल तक आने व हौसला अफ़ज़ाई करने के लिये
सादर
जनाब आज़ी तमाम साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है, मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं।
"भूलने की कोशिशें की थीं मगर
जो मिला वो ज़िक्र तेरा कर गया" वाह... बहुत ख़ूब।
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