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कहीं ये उन के मुख़ालिफ़ की कोई चाल न हो
सो चाहते हैं कि उन से कोई सवाल न हो.
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कोई फ़िराक़ न हो और कोई विसाल न हो
उठे वो मौज कि अपना हमें ख़याल न हो.
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तेरी तलब में हमें वो मक़ाम पाना है
कि लुट भी जाएँ तो लुट जाने का मलाल न हो.
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हमें सफ़र जो ये बख़्शा है क्या बने इसका
न हो उरूज अगर इस में या ज़वाल न हो.
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बशर न हो तो ख़ुदा भी न हो जहाँ में कोई
न हो जहाँ में ख़ुदा तो कोई वबाल न हो.
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मैं चाहता हूँ ये दुनिया वहाँ तलक पहुँचे
जहाँ चराग़ से बढ़कर कोई मिसाल न हो.
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कहो मियाँ कि ज़माने में क्या ये मुमकिन है
ग़ज़ल हो नूर की जिस में कोई कमाल न हो.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. ब्रज जी
बहुतख़ूब आदरणीय नीलेश जी...अच्छी ग़ज़ल कही...
शुक्रिया आज़ी तमाम भाई
वाह जनाब बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई
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