शुक्ल पंचमी माघ की, लायी यह संदेश
सजधज साथ बसंत के, बदलेगा परिवेश।।
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कुहरे की चादर हटा, लगी निखरने धूप
दुल्हन जैसा खिल रहा, अब धरती का रूप।।
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डाल नये परिधान अब, दिखे नयी हर डाल
हर्षित इस से सज रही, भँवरों की चौपाल।।
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तरुण हुईं हैं डालियाँ, कोंपल हुई किशोर
उपवन में उल्लास है, अब तो चारो ओर।।
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गुनगुन भँवरों ने कहे, स्नेह भरे जब बोल
मार ठहाका हँस पड़ी, कलियाँ घूँघट खोल।।
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नहीं उदासी से भरा, शेष एक भी ठौर
हर उपवन में चल पड़ा, फिर उत्सव का दौर।।
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वीणा सरगम छेड़ दो, वागीशा वरदान
सदा रहे ऋतुराज सी, हर जीवन की शान।।
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मौलिक अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति, स्नेह एवं टंकणत्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, वसंत पर अच्छे दोहे लिखे आपने, बधाई स्वीकार करें ।
'मार ठहाका हँस पड़ी, कलियाँ घूँघट खोल'
इस पंक्ति में 'कलियाँ' बहुवचन है इसलिए 'पड़ी' को "पड़ीं" करना उचित होगा ।
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । दोहों पर आपकी उपस्थिति और स्वीकार्यता से लेखन सफल हुआ। स्नेह के लिए हार्दिक आभार।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी , सादर अभिवादन।.दोहों पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आ. भाई चेतन जी , सादर अभिवादन।.दोहों पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
बहुत सुंदर वासंतिक दोहे, रचे ,आप ने , भाई लक्ष्मण सिंह मुसाफिर साहब । हाँ, बधाई !
बहुत ही ख़ूबसूरत।
वसंत के आगमन का अद्भुत और अद्वितीय चित्रण और स्वागत।
हर एक दोहा लाजवाब और शानदार ! इस जानदार प्रस्तुति पर बधाई दर बधाई स्वीकार करें आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी।
बसंत बगरायो है..
बढिया दोहों पर बारम्बार बधाई कह रहा हूँ, आदरणीय
निम्नलिखित दोहे की प्रौढ़ता विशेष रूप से ध्यानाकृष्ट कर रही है..
गुनगुन भँवरों ने कहे, स्नेह भरे जब बोल
मार ठहाका हँस पड़ी, कलियाँ घूँघट खोल।।
वाह वाह वाह !
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