दोहा पंचक ....
मन में मदिरा पाप की, तन व्यसनों का धाम ।
मानव का चोला करे, मानव को बदनाम ।।
छोड़ो भी अब रूठना, छोड़ो भी तकरार ।
देखे थे जो आपके , स्वप्न करो साकार ।।
लुप्त हुई संवेदना , मिटा खून का प्यार ।
रिश्तों में गुंजित हुई , बंटवारे की रार ।।
दिख जाएगी देख तू , तुझको अपनी भूल ।
मन के दर्पण से हटा , जमी स्वार्थ की धूल ।।
भेद बढ़ाती प्यार में, बेमतलब की रार ।
खो न दें कहीं रार में, जीवन का शृंगार ।।
सुशील सरना / 3-5-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छे दोहे रचे आपने, बधाई स्वीकार करें I
'देखे थे जो आपके , स्वप्न करो साकार'--मुझे ये पंक्ति ठीक लगी ,अर्थात :-यानी मैंने जो आपके सपने देखे थे उन्हें साकार करो I
आदरणीय सुशील सरना जी बहुत सुंदर दोहे हुए । वाह वाह ।"आपने" पर अमीरुद्दीन जी से सहमत हूँ।
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, दरकते मानव-मूल्यों पर दोहा पंचक का ज़बरदस्त पंच मारने के लिए आपको मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
देखे थे जो 'आपके' / आप ने
दिख जाएगी देख तू / देख ले
खो न दें कहीं रार में / कहीं रार में खो न दें
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