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ग़ज़ल (जबसे तुमने मिलना-जुलना छोड़ दिया)

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जबसे तुमने मिलना-जुलना छोड़ दिया
यूँ लगता है जैसे नाता तोड़ दिया

मंदिर-मस्जिद के चक्कर में कितनों ने 

पुश्तैनी रिश्तों को यूँ ही तोड़ दिया 

मुझ पर है इल्ज़ाम कि मैं चुप रहता हूँ 

तुम ने भी तो लड़ना-वड़ना छोड़ दिया  

मुझको आगे आते जो देखा उसने 

ग़ुप-चुप अपनी राहों का रुख़ मोड़ दिया

मुझको बीच समंदर उसने जाने क्यों 

लहरों की बाहों में तन्हा छोड़ दिया 

अपना-पन का था जो इक ताना-बाना 

किस वहशी ने आकर ये झंजोड़ दिया 

हमसे फिर अब और न रोया जाता है 

क़तरा-क़तरा जो था अश्क निचोड़ दिया 

 

"मौलिक व अप्रकाशित" 

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 12, 2022 at 6:25pm

आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी शिर्कत और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 12, 2022 at 6:24pm

आदरणीया अनिता मौर्या जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी शिर्कत और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 10, 2022 at 6:03pm

वाह आदरणीय अमीरुद्दीन जी बहुत ही खूब ग़ज़ल कही...

Comment by Anita Maurya on July 8, 2022 at 6:47pm

क्या ख़ूब ग़ज़ल हुई है, वाह..

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 4, 2022 at 9:49pm

जनाब गुमनाम पिथौरागढ़ी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।

Comment by gumnaam pithoragarhi on July 4, 2022 at 9:52am

वाह शानदार गजल हुई है वाह .. 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 3, 2022 at 8:14am

आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2022 at 7:29am

आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। अच्छी समसामयिक गजल हुई है । हार्दिक बधाई।

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