2122 - 1122 - 1122 - 112/(22)
दिल धड़कने की सदा ऐसी भी गुमसुम तो न थी
इतनी बे-परवा मेरी जान कभी तुम तो न थी
हम तड़पते ही रहे तुम को न अहसास हुआ
अपनी उल्फ़त की कशिश इतनी सनम कम तो न थी
सब ने देखा मेरी आँखों से बरसता सावन
थी वो बरसात बड़े ज़ोरो की रिम-झिम तो न थी
तुम जिसे ज़ीनत-ए-गुल समझे थे अरमान मेरे
गुल पे क़तरे थे मेरे अश्कों के शबनम तो न थी
क्यूँ न आहों ने मेरी आ के तेरे दिल को छुआ
तेरी उल्फ़त किसी चाहत में कहीं गुम तो न थी
तुम ने अपनी ही वफ़ाओं का सिला क्यूँ चाहा
रग़्बत-ए-इश्क़ सनम मेरी भी कुछ कम तो न थी
बे-वफ़ा शाद रहे छोड़ के तू जा मुझको
ज़िन्दगी यूँ भी तेरे साथ मुनज़्ज़म तो न थी
"मौलिक व अप्रकाशित"
ज़ीनत-ए-गुल - फूल की शोभा या श्रंगार
रग़्बत-ए-इश्क़ - प्रेम के प्रति अनुराग
मुनज़्ज़म - संगठित, सुनियोजित, क्रियागत
Comment
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन। अच्छी नज्म हुई है। हार्दिक बधाई।
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