फिर जंगल का राजा हाथी ही बना है।पर, अब उसके साथ बिल्लियाँ, भेड़ें आदि हैं। भेड़ियों की बहुतायत है।समरसता, न्याय, सबको काम देने का ऐलान हो चुका है।उधर शेर -मंडल दहाड़ मारकर जंगल को सिर पर उठाए है कि इस ढुलमुल हाथी को उनलोगों ने ही पाल -पोसकर बड़ा किया।काम लायक बनाया,पर यह तो पाला- बदलू निकला।इसपर कोई क्या भरोसा करेगा? राज -पक्ष की ओर से इन सब बातों को विधवा -विलाप करार दिया गया है। शेर -दल की अब बिल्लों के दल से उम्मीद बँधी है।
इसी बीच एक मादा मेमना गुम पाई गई। उसकी माँ दौड़ी हुई हाथी के दरबारी के घर चली गई।सोचा, ‘भले दरबारी पुराने भेड़िया के खानदान से है,पर अब तो वह मेमना जैसा व्यवहार करता है।सबको पुचकारकर बतियाता है।मदद करेगा ही।’ वहाँ उसने देखा, दरबारी के घर पुराना भेड़िया बैठा था।उसने उसको निहारा।वह सहम गई।उसे लगा,भेड़िए की नजर उसे भेद रही है।उसे पुराने दिन याद आ गए,जब वह लुटी थी,लांछित की गई थी। मन मारकर उसने बिटिया के गायब होने की अपनी व्यथा -कथा सुनाई।आरजू -मिन्नत की। रोई -गिड़गिड़ाई। फिर उसे आश्वासन मिला,"जा,बिटिया शाम तक मिल जायेगी।" वह सिर झुका सलामी दे चलती बनी।
चारदीवारी के बाहर आई ही थी कि अंदर ठहाकों की आवाज सुन ठमक गई।चारदीवारी से सटकर सुनने लगी। "बहुत बढ़िया।भेड़ें अब चलकर यहीं आ जायेंगी। लाने की जहमत कौन उठाए।चैन से बैठकर खायेंगे।" बूढ़ा भेड़िया कह रहा था।
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
लघुकथा पर समय देकर उसे इज्जत बख्शने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय महेंद्र जी।बदली परिस्थितियों में प्रतीक को थोड़ा बदलने की चाह ने राजा बदला है।
आदरणीय मनन जी, लोकतन्त्र के माध्यम से मूल स्वभाव पर अच्छी प्रतीकात्मक लघुकथा लिखी है आपने। इस हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है। मेरे ख़याल से लोकतन्त्र में यदि राजा शेर को ही रहने दिया जाता तो बेहतर रहता। पर यदि सत्ता परिवर्तन हेतु हाथी को ही राजा दर्शाना है तो उसकी भूमिका थोड़ी और स्पष्ट की जा सकती है। आपकी रचना में मूल पात्र चार हैं : शेर, हाथी, भेड़िया और मेमना। इनके बीच के अन्तर्सम्बन्ध पर एक बार पुनः दृष्टि निवेदित है। सादर।
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