'कभी- कभी विपरीत विचारों में टकराव हो जाता है।चाहे- अनचाहे ढंग से अवांछित लोग मिल जाते हैं,या वैसी स्थितियाँ प्रकट हो जाती हैं। या विपरीत कार्य- व्यवसाय के लोगों के बीच अपने- अपने कर्तव्य- निर्वहन को लेकर मरने- मारने तक की नौबत आ जाती है। यदा- कदा तो परस्पर की लड़ाई- भिड़ाई में प्राणी इहलोक- परलोक के बीच का भेद भी भुला बैठते हैं।अभी यहाँ हैं,तो तुरंत ऊपर पहुँच जाते हैं।पहुँचा भी दिए जाते हैं।' प्रोफेसर पांडेय ने अपना लंबा कथन समाप्त किया। मंगल और झगरू उनका मुँहदेखते रह गए।
'टुकुर- टुकुर मेरा मुँह क्या देख रहे हो, भाई?कुछ पल्ले पड़ा भी, कि नहीं?'
'....नहीं।' दोनों ने एक साथ प्रोफेसर को जवाब दिया।
'अच्छा।तो ऐसे समझो, जब एक- दूसरे की बात से सहमत न हों,काम पसंद न करें या एक- दूसरे के काम में बाधक बनने लगें,तो इसे टकराव ....मतभेद...या विरोधी पर बल - प्रदर्शन को मुठभेड़ या एनकाउंटर भी कहते हैं।'
'अच्छा तो आप एनकाउंटर के बारे में बोल रहे थे? तो साफ- साफ कहते।अभी तो एनकाउंटर से बच्चा- बच्चा वाकिफ है, प्रोफेसर साहिब।' मंगल और झगरू प्रोफेसर को बड़ी हीन दृष्टि से देखते हुए बोले।
'...हूँ।' प्रोफेसर गहरी साँस छोड़ते हुए इतना ही कह पाये।
'नाराज मत होइए साहिब।यह तो आजकल में ही हुआ है।और फिर करने की माँग चल रही है।'
'माँग चल रही है?' प्रोफेसर ने चुटकी ली।
'हाँ भई! कल के एनकाउंटर की खूब सराहना भी हुई है।पुलिस की पीठ थपथपाई जा रही है।'
' तम लोग क्या सोचते हो?'
'बहन- बेटियाँ किसके घर में नहीं हैं?आप ही कहिए,क्या यह ग़लत हुआ? जैसे को तैसा जवाब मिला।गये स्सस्साले सब परलोक...हुस्न की परियों से कुलेल करें अब। पुलिस ने एनकाउंटर करके ठीक किया है।'
'एनकाउंटर किया नहीं जाता,हो जाता है। जब अपराधी जाँच- कार्य में अन्यथा स्थिति पैदा करने लगते हैं या भागने की कोशिश करते हैं,तब यह एकमात्र विकल्प होता है पुलिस के पास।'
'फिर लोग क्यों कह रहे हैं कि एनकाउंटर किया गया है?'
'किया नहीं गया,हो गया।'
'तो फिर और अपराधियों का एनकाउंटर करने की माँग क्यों हो रही है?'
'माँग न्याय करने की हो रही है, फौरी तौर पर।'
'मसलन,जैसे एनकाउंटर हुआ?'
'हाँ,क्योंकि वह जल्दी हो जाता है।और लगता है कि न्याय हो गया।'
'तो क्या न्याय भी इतनी जल्दी संभव है?'
'थोड़ा समय लगता है।पर इतना भी न लगे कि लोग एनकाउंटर की ही माँग पर उतर आयें।'
'सही बोले प्रोफेसर जी,बिलकुल सही।वैसे न्याय होने लगे,तो फिर ऐसे न्याय की जरूरत ही न पड़े।'
'सहमत।' प्रोफेसर ने दाएँ हाथ की मुट्ठी भींचते हुए कहा। फिर तीनों की मुट्ठियाँ आसमान की तरफ उठ गईं।और एक समवेत स्वर गूँज गया -
'यही सच है।'
मुहल्ले के ढेर- सारे लोग एक साथ बोल पड़े थे।
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
लघुकथा को मान देने के लिए आपको धन्यवाद आदरणीय महेंद्र जी।
न्याय-व्यवस्था की सुस्त रफ़्तार पर बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने आदरणीय मनन जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।
लघुकथा आपको अच्छी लगी,अच्छा है। आ.समर जी,आपका शुक्रिया।नमन।
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब, अच्छी लघुकथा लिखी आपने, बधाई स्वीकार करें.
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