सुषमा ने तकिया समीर के सिरहाने कर दी थी।अपना सिर किनारे पर रखा था जो कभी ढुलक कर तकिये से उतर गया था।दोनों गहरी निद्रा में निमग्न थे।अचानक समीर ने करवट बदली।दोनों के नथुने टकराये।उसे आभास हुआ कि सुषमा का सिर तकिया पर नहीं, नीचे है।उसने आँखें खोली। उसे महसूस हुआ ,सुषमा दायीं करवट लेटी थी।उसकी उष्ण साँसें समीर को अच्छी लगीं।वह उसे तकिये पर लाने की कोशिश करने लगा।हालांकि वह चाहता था कि काम भी हो जाये और सुषमा की निद्रा भंग भी न हो।पर जैसे उसने उसे बाँहों में लेकर उसका सिर तकिया पर करना चाहा,वह जग गयी।अलसायी-सी बोली-
‘क्या करते हो?सोने दो न।’
‘तकिया पर आ जाओ।' समीर उसके मुख मंडल पर बिखरे उसके बाल सहेजते हुए बोला।
‘रहने भी दो।नींद आ रही है।' वह बायीं करवट हो गयी।समीर ने तबतक उसका सिर तकिया के ऊपर कर लिया था।
‘तकिया छोटा कैसे हो गया?'वह बड़बड़ायी, ‘तुमने इसे बदल दिया है,समीर।’
‘नही रानी, बड़े वाले का खोल तुमने धोया था।अभी सूखा नहीं था।भूल गयी क्या?’
‘तुम्हें तो छोटावाला तकिया पसंद है न?इसीलिए उसे धो दिया था।’
‘तुम मेरी जान हो।’
‘रहने भी दो।जरा-सी बात पर पिनक जाते हो।अभी तकिये में हिस्सा दे रहे हो।’
‘पूरा ले लो न।' सुषमा की लटों से खेलते हुए समीर बोला।
‘बड़ी मिठास घोल रहे हो।क्या बात है?’
‘मिसरी में मिठास मैं घोलूँ?ऐसा हुआ है कभी क्या?’
‘मेरा तकिया क्यूँ नहीं दिया तुमने?’
‘अच्छा,लो।' समीर ने अपना बायाँ हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया।सुषमा ने उसपर अपना सिर रख लिया। समीर का हाथ कस गया।वह खिलखिलाई।
‘तुम बड़े वो हो।सोने नहीं देते।मुझे कमसिन समझकर तंग करते हो।’
‘मैं कौन ज्यादा बड़ा हूँ जी?’
‘पर तुम बहुत कुछ जानते हो।’
‘कुछ ज्यादा नहीं।’
‘अनाड़ी तो नहीं हो....पकठोसू।’
‘ऐसा कैसे कह सकती हो?’
‘महसूस किया है मैंने।ऊपर से भले भोलाराम दिखते हो, पर अंदर ही अंदर पकठाये हुए हो।जान निकालते रहते हो।’
‘इक्कीस का हूँ डियर।’
‘पता है।और मैं बस सोलह बसंती।यह भी कोई शादी की उमर होती है। जैसे बहती नदी में बाँध खड़ा कर दो,बस।’
‘पर ज्यादा बहने से नदी के भटकने का भय रहता है।इसीलिए बाँध खड़ा किया जाता है।’
‘क्यों न कहोगे? तैरने को नदी चाहिए।वह भी बाँध वाली।वाह जी वाह!’
‘बाँधवाली नदी में बह जाने का भय नहीं होता न।’
‘मैं बहुत भोली थी ।इसीलिए तुम्हारी चल गयी, वरना..... ।’
‘वरना क्या?’
‘हाथ आती क्या उतनी जल्दी?फल खाने के लिए कितनी टोह लगानी पड़ती है। पता है, कि नहीं?’
‘वो तो सुना है।पर कहते हैं, कभी पेड़ से गुजरे और फल टपक कर हाथ में आ गया,कभी-कभी तो एक से अधिक भी।’
‘चलो हटो।फल के रसिया हो।इसीलिए कहती हूँ तुझको....पकठौसू। पूरे पकठाये हुए हो।' समीर की दाहिनी कलाई मरोड़ते हुए सुषमा बोली, ‘हमलोग अपने बच्चों की शादी इतनी कम उमर में न होने देंगे।’
‘बच्चे होने तो दो।’
‘ऊँ हूँ...चलो हटो।’
मंद- मंद हवा …रौशनी गुल…बादलों में छिपता-निकलता चाँद.... दबे- दबे खिलखिलाते बचे-खुचे तारे। तूफान की आहट से पर फड़फड़ाती, चिहुँकती चिड़ी....तेज-तेज साँस लेती हवा .... फिर चिड़ी की सिसकारी..... हवा शांत ....चाँद मुक्त,लज्जायुक्त, मुसकुराता हुआ ..... गर्वोन्नत चिड़ा चिड़ी को सहलाता हुआ ......चिड़ी गुमान भरी नजरों से अपने चिड़े को देख अलसाई हुई बोली,‘घाव देकर मलहम लगाते हो? ..... छलिये!!!’
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय समर जी, शुक्रिया। नमन।
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब, अच्छी लघुकथा हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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