2122-1212-22
शुक्र तेरा अदा नहीं होता
और वा'दा वफ़ा नहीं होता
तू न तौफ़ीक़ दे अगर मौला
एक सज्दा अदा नहीं होता
सिर्फ़ तौबा पे बख़्शने वाले
कोई तुझ-सा बड़ा नहीं होता
घर नहीं, है वो एक वीराना
ज़िक्र जिस में तेरा नहीं होता
सबके अहवाल जानता है तू
कुछ भी तुझ से छुपा नहीं होता
तेरी रहमत के आसरे पर हूँ
तू जो चाहे तो क्या नहीं होता
और बे-ज़र 'अमीर' क्या मांगे
ख़ाली बरतन मेरा नहीं होता
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय दण्डपाणि नाहक़ जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
//मतला बेहतर हो सकता है और मक़्ता भी//
जनाब मक़्ता तो ठीक ही है, अलबत्ता मतले में गुंजाइश ज़रूर है, देखता हूँ।
आदरणीय महेंद्र कुमार जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
//मतला बेहतर हो सकता है।//
जनाब, मतले पर आदरणीय रवि भसीन जी से हुई चर्चा में ख़ाकसार के दृष्टिकोण के अनुरूप कोई सुधार आपके ज़ह्न में हो तो ज़रूर बताइएगा, आभारी रहूँगा... सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन जी, अच्छी ग़ज़ल कही है आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। मतला बेहतर हो सकता है।
//मक़्ता में 'मांगे' को 'माँगे' लिखना ज़्यादा मुनासिब होगा//
सहमत।
मुहतरम रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद बाइस-ए-शरफ़ है, ज़र्रा नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
/और वा'दा वफ़ा नहीं होता/ दरअसल ये मिसरा मैंने यूँ रखा था-
'कोई वा'दा वफ़ा नहीं होता' मगर छान-बीन से ये मा'लूम हुआ कि हू-ब-हू यही मिसरा जनाब काज़िम रज़ा 'राही' के एक शे'र में शामिल है, जो यूँ है-
मुफ़्लिसी की वजह से ऐ 'राही'
'कोई वा'दा वफ़ा नहीं होता'... इस लिये बदलना पड़ा, मगर भाव वही है,
आपकी तज्वीज़ भी बहतरीन है, मगर 'बस ये' से भाव बदल रहा है, इसलिए माज़रत ख़्वाह हूँ।
वैसे...मतला स्वतंत्र होने के साथ-साथ दूसरे शे'र के साथ क़तअ-बन्द है। :-))
/और वा'दा वफ़ा नहीं होता/
/बस ये वा'दा वफ़ा नहीं होता/
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब, आदाब! इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर आप को ख़ूब सारी दाद और बधाई! अगर मतला के मिस्रा-ए-सानी को यूँ कहा जाए तो कैसा रहेगा?
/शुक्र तेरा अदा नहीं होता
और वा'दा वफ़ा नहीं होता/
बस ये वा'दा वफ़ा नहीं होता
सुझाव मात्र है, अगर पसंद ना आये तो कोई बात नहीं।
मक़्ता में 'मांगे' को 'माँगे' लिखना ज़्यादा मुनासिब होगा।
आपकी ग़ज़ल का दूसरा शे'र लाजवाब है। शुभकामनाएँ
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