गीत-८
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कामना में नित्य जिस की, हर कली सुख की लुटाई।
पा लिया स्पर्श तेरा वेदना ने, अब न लेगी वो विदाई।।
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वेदना के बीज से ही, जन्म लेता है सुखद क्षण।
जेठ की तीखी तपन का, दान जैसे ओस का कण।।
कंटकों में पुष्प खिलते, दीप जलते नित तमस में।
मोल सुख का जानने को, हो गयी दुख से सगाई।।
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ध्वंस के अवशेष पर नित, दीप दुनिया है जलाती।
प्राण रहते पूछने पर, एक पल भी वह न आती।।
कर समर्पित प्राण ऐसे, चिर अखण्डित वेदना पर।
शेष करने फिर स्वयं को, थी विहँस धूनी रमाई।।
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जग हँसेगा सोचकर ही, श्वास में क्रंदन छुपाया।
और नित संताप-रथ पर, मौन हृदय को जलाया।।
जो उमग जाता कहीं ये, बोल देता जग छिछोरा।
चुप रहा यौवन सहम यूँ, ली नहीं कोई अँगड़ाई।।
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था व्यथा का मौन सागर, नित्य अधरों पर तरंगित।
भाव से उसके कदाचित, हो जगत पाया न परिचित।।
क्रोच वध की वेदना सी, सन्त जैसी आह निकली।
पर नहीं अभिषाप देने, इस जगत को सौं उठाई।।
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रूप का अपमान करना, लोक में अभिशाप जैसा
कामना करना सुमन की, हो गया फिर पाप कैसा?
जो कहा माना वही सब, मौन रहकर दृष्टि नत की
पा रहा सन्ताप फिर क्यों, की नहीं कोई ढिठाई।।
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मौलिक/ अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई सुशील जी सदर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति व स्नेह के लिए आभार।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गीत पर आपकी प्रतिक्रिया से मन आस्वस्त हुआ। हार्दिक आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी जी अच्छा गीत हुआ है, बधाई स्वीकार करें ।
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