महाराणा प्रताप
चितौड़ भूमि के हर कण में बसता
जन जन की जो वाणी थी
वीर अनोखा महाराणा था
शूरवीरता जिसकी निशानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
स्वाभिमान खोए सब राणा जी
किरण चिंता की माथे पर दिखाई दी
महाराणा का जन्म हुआ तो
महल में खुशियाँ छाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
बप्पा रावल का शोनित रग-रग में बहता
न सोच सुख-दुःख, क्लेश की आने दी
सर्वोच्च रहा स्वाभिमान सदा ही
न शर्त झुकने की स्वीकारी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
राणा सांगा का वंशज
जिसे राजवंश की लाज बचानी थी
सभी राजाओं को जीतता जाता
उस अकबर को धूल चटानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
समझौता हुआ न स्वाभिमान से
चाहे सुख-सुविधाओं से मुक्ति पानी थी
वीरता के किस्से सुन राणा के
बुद्धि सबकी चकराई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
तेजस्वी वो देदीप्यमान यौद्धा
निडर-निर्भीक जिसकी जवानी थी
जनहितेषी दानी, ज्ञानी-ध्यानी
न दान-दक्षिणा में कमी कभी आने दी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
साढ़े साथ फुट लंबा एक वीर योद्धा
जिसकी लंबाई ये बतलाई थी
अस्सी किलो का जो भाला रखता
जिसकी दस किलो की तलवारे थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
सत्तर किलो का कवच था जिसका
एक सौ दस किलो वजनी कदकाठी थी
भीमकाय-सा व्यक्तित्व तन का
देख शत्रु सेना घबराई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
धारण करते तलवार खंडा नाम की
प्राचीन बहुत पुरानी थी
सीधे-नुकीले ब्लेड थे जिसके
हवा में नागिन-सी लहराई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
धर्मनिष्ठ वो कर्तव्यनिष्ठ
प्रखर-त्यागी एकलिंग में जिसकी भक्ति थी
मार्तंड सम तेज था जिसका
आत्मा निर्मल-निश्चल, स्वाभिमानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
निहत्थे शत्रु पर वार न करना
ये माँ से शिक्षा पाई थी
एक म्यान में दो तलवार सदा ही
बात प्रताप की बड़ी निराली थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
यौद्धाओं का घर जंगल होता
पहचान बनी ये वीरों की
महल-आराम सुख-वैभव त्यागे
जिसे प्रजा की सेवा करनी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
कला-प्रतिभाओं का मान हमेशा
नींव सहिष्णुता की जिसने डाली थी
अच्छी नीतियों के पोषक राणा जी
जिन्हें हिंदू राजाओं की साख बचानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
हिन्दू-मुस्लिम में भी देखी एकता
ऐसी टुकड़ी वीर जवानों की
धर्म-जाति का भेदभाव न मन में
नीतियाँ सुंदर बड़ी प्यारी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
न डरना न डराना किसी को
कूटनीति की राह अपनानी थी
धौंस दिखाता अकबर रह गया
केवल बात थी शीश झुकाने की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
झुका नही वो रुका नही
जिसने गति अकबर के तूफान की थामी थी
मृगों के झुंड वो व्याघ्र-सा
जिसकी दहाड़ सिंह-सी लगानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
विजय-विनय का मंत्र पढ़ा जो
उसमें क्रोध की ज्वाला भड़की थी
अब दर्प-अभिमान मुगलों का नही रहेगा
बात राणा मन में ठानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
धूल चटा दी शत्रुओं को जिसने
शक्ति अनकही अंजानी थी
अचंभित था अकबर भी उसके किस्से सुनकर
जिसकी जग जीतने की तैयारी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
तैयार अकबर आधा हिंदुस्तान देने को
थी शर्त प्रताप का शीश झुकाने की
सेनापति न कोई भी ऐसा
जिसमे हिम्मत हो सम्मुख आने की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
बड़ी सेना एक युद्ध में उतारा
छोटी सेना थी राणा की
ऐसे युक्ति संहार की उसने बनाई
जो पूरी कभी न होनी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
मानसिंह आया सामना करने
सुन नस-नस राणा की खोली थी
अब सम्मान का विषय बना चितौड़ जीतना
जिसकी प्रतिकृति दिल में समाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
सामना होता जब भी राणा से
लज्जा से नजरें झुकाई थी
अपनी पगड़ी का जो सौदा करता
कसम जी-हजूरी की उसने खाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
हल्दी घाटी के इस भयंकर युद्ध में
मेवाड़ की आन बचानी थी
अपनी जान की फिक्र न जिनको
उस वीर की यही कहानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
बाहुबल दिखाते हय-गजदल चलते
पदाति की बात निराली थी
आग उगलती तोपों ने
बेचैनी अरिदल में खूब मचाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
खून खोलता हर सैनिक का
उनकी जब रणभेरी की गूंज सुनाई दी
वायस-श्रृंगाल नोंच-नोंच के खाते
जहां लाश बिछी थी वीरों की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
अल्लाहो-अकबर के नारों में
गूंज हर-हर महादेव की गूंजी थी
बहती जहां पर लहू की धारा
वीरों को नरभक्षियों की भूख मिटानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
वीर-साहसी बन बल जांचते अपना
जब सैनिक दल ने हुंकार भरी
शमशीर से शमशीर टकराती
नोक वपु चीरती भालों की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
महाप्रलय की बिजली चमकी
रणचंडी भी नाच उठी थी
चील-कौंवे, गिद्ध शोर मचाते
तलवार म्यान से निकल चुकी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
छुरी-बरछी, चाकू चलते
धनुष-बाण ने भी भृकुटि तानी थी
चमचमाते-लपलपाते
रण महाप्रलय में लाश बिछानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
बन रणचंडी का रूप भयंकर
कलकल करती रणगंगा में नहायी थी
कोहराम युद्ध में ऐसा मचाया
सेना वैरी दल की थर्रायी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
चमचमाती तलवार की धार भी
हर ओर धड़-मुंड गिराती निकलती थी
हाथ-पैर सर-धड़ कटकर गिरते
उनकी गिनती किसने जानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
तनती थी लहू चाट-चाटकर
जिसे रणचंडी की प्यास बुझानी थी
कथकली करती रणभेरियाँ
जब भाला-तलवार चलती राणा की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
रक्त पिशाचनी झूम के नाचे
जिन्हे पी रक्त से प्यास बुझानी थी
मृत्युदूत बन राणा लड़ते
जिन्हें दुश्मन को धूल चटानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
नतमस्तक उसका कौशल देखकर
परछाई खौफ की छाई थी
किसकी हिम्मत जो सामना करे
गले मृत्यु किसको लगानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
अरावली के कानन गवाही है देते
पूछो मिट्टी हल्दीघाटी की
क्षत-विक्षत हुए जानें कितने
बनी कितनों की मृत्यु साक्षी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
सैनिक कांपे नायक कांपे
विनाश की थाह न जानी थी
हतप्रभ रह गए देखने वाले
रची कवियों ने विभिन्न कहानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
बीच से काटा बहलोल खान को
डोर मुगलों की जिसने थामी थी
कभी सामने न आया अकबर राणा के
संग्राम में जिसने हार न अभी तक मानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
भीषण हुआ रक्तपात समर का
विग्रह का शंखनाद करती सेना थी
कैसे खड़े हो उसके विरोध में
जिसकी वीरता न माँगती पानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
कंपित रिपु का आत्मबल
रक्त से नोंक निज भालें की नहाई थी
आसमान छू रही मुगलों की शक्ति
उस पर रोक लगानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
जुगत में रहता नीति बनाता
जिसने विजय न राणा पर पाई थी
बड़ी मुश्किल से बचा मानसिंह
पर अपनी शाख गंवाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
जिसने अरण्य-वन में वक्त गुजारा
पर कभी हार नही स्वीकारी थी
भूखे-प्यासे भटके वनों में
घास-फूस की रोटी भी खाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
संतान को खोते दुःख भी सहते
लेकिन आंच न चितौड़ पर आने दी
अटल-प्रतिज्ञा ऐसी जिसकी
गूँज मुगल दरबार तक सुनाई दी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
आँसू बहाये अकबर ने भी
जब सूचना वीरगति की जानी थी
तेरे जैसा न वीर जहां में
महिमा प्रताप की उसने गायी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
अधूरी रह गई ख़्वाहिश उसकी
उदासी मान में छाई थे
मर कर भी राणा अमर हो गया
वीरगति रण में पाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
लौह पुरुष वो मातृभक्त
जिसने गुलामी अकबर की सदा ठुकराई थी
अखंड भारत को तवज्जो देता
जिसकी पहचान थी हिन्दुस्तानी की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
मेवाड़ का सूरज, मातृभूमि का रक्षक
तुलना करूँ क्या राणा की
कभी झुका न पाया अकबर जिसकों
रची वीरता की ऐसी कहानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
चेतक की हम बात करे क्या
निष्कलंक जिसकी कहानी थी
प्राण न्यौछावर कर दिये अपने
लेकिन आँच न प्रताप पर आने दी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
मोहताज नहीं किसी परिचय का
अपनी जिसकी कहानी थी
बिन पंखों के उड़ान जो भरता
बातें हवा से करना निशानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
नीले रंग के चेतक से
गज शत्रु की शामत आई थी
उनके मस्तक पर चढ़कर वार था करता
जिसे सूंड नकली पहनाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
रणभूमि में चौकड़ी भरता
जवानी में जिसकी रवानी थी
हय टापों से वार जो करता
देख अरिदल में हुई हैरानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
अरि मस्तक पर दौड़ लगाता
ऐसी चढ़ी जवानी थी
फुर्ती की क्या बात करें हम
उससे तेज फिरती न पुतली राणा की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
कोड़ा गिरा न कभी राणा का
न कभी नौबत ही ऐसी आने दी
पल में ओझल पल में प्रत्यक्ष
वायु भी जिससे हारी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
विकराल-वृजमय बादल-सा जो
गढ़ी शत्रुओं ने जिसकी कहानी थी
दंग रह जाते उसके करतब देखकर
जिसकी गति-बुद्धि न किसी ने जानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
सरपट दौड़ता राणा को लेकर
जिसकी चाल बड़ी तूफानी थी
खड्ग-तीर तलवार-भालों से रक्षा करता
कभी खरोच न राणा पर आने दी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
प्रहार करता शत्रु पर ऐसे
देरी सोच राणा के मन में आने की
निडर-निर्भीक हो किले भेदता
जिसे वीरगति भी युद्ध में पानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
भागते हुए के पैर न दिखते
रफ्तार ऐसी चेतक की
वार करता, चकमा देता
जिसने तुलना राणा से पाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
जानता था शत्रु समर्थ नहीं है
हिम्मत न कोई जोखिम बड़ा उठाने की
चौड़ा-गहरा नाला बड़ा था
पार करने में शत्रु की सेना सहमी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
पार किया तो जान बचेगी
बात मन में चेतक ने ठानी थी
मुगलियां सेना से राणा बचाता
उसने तीन पैर पर दौड़ लगाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
कई फुट का नाला कूदकर
उसने राणा की जान बचाई थी
ऊंची छलांग वो ऐसी लगाता
जंगल में जान सुरक्षित रही थी राणा की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
गज शीश पर पाँव थे जिसके
जिसकी शक्ति गज़ब निराली थी
रणभूमि में नाला लांगा
भरी छलांग थी कुर्बानी की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
घायल था पर जिम्मेदारी जिसकी
राणा की जान बचानी थी
भरी चौकड़ी पूरी शक्ति से
जो अंतिम राणा को उसकी सलामी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
क्रन्दन करते जन-पशु-पक्षी सब
अंतिम चेतक ने ये लड़ाई लड़ी थी
मुख छिपाता सूरज रह गया
जब तम गहन अंधकार ने ली अंगड़ाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
राम प्रसाद एक गज राणा का
जिसके रणकौशल की बात निराली थी
जाने कितने गजों को मारा
सेना वैरी दल की देख-देख चकराई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
घेराबंदी कर उसे फ़साते
महावत से गुहार लगाई थी
खाना-पीना छोड़ा राणा की याद में
जिसने पिंजरे में जान गंवाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
देख अचंभित अकबर होता
त्याग की उसके दुहाई दी
राणा से पशु भी करते कितना प्रेम है
ये बात बड़ी हैरानी की
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
रामप्रसाद से नाम वीर कराया
जिसने नई त्याग-बलिदान की रची कहानी थी
चेतक-वीर के किस्से सुनाता
अंतरात्मा उन्हे अकबर की शीश नवाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
शीश झुकाया न जिसके गज ने
मृत्यु ही अपनाई थी
कैसे झुकाऊँ उसके मालिक को
अकबर ने गुहार मंत्रियों से रोज लगाई थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
प्राण न्यौछावर किए दोनों ने
तन परवर्ती न बीच में आने दी
राष्ट्र रक्षा ही सर्वोपरि होती
अमर देशभक्ति की रची कहानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
वीर-चेतक सी अजब कहानी
न पहले ऐसे सुनाई दी
इतिहास भी जिनको खूब सरहाता
पशुओं में कभी न देशभक्ति ऐसी दिखाई दी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
क्या वर्णन करूं मैं उसके यश का
अद्भुत जिसकी जवानी थी
कम पड़ जाते शब्द भी सारे
गढ़ा वीरता की ऐसी निशानी थी
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।
वीर अनोखा महाराणा था, शौर्य-वीरता जिसकी निशानी थी||
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