सूर्य कहलाएं पिता थे जिसके
माता सती कुमारी
जननी का क्षीर चखा न जिसने
वो वीर अद्भुत धनुर्धारी।।
निज समाधि में निरत रहा जो
स्वयं विकास किया था भारी
पालना बनी थी आब की धारा
बिछौना बनी पिटारी।।
ज्ञानी-ध्यानी, प्रतापी-तपस्वी
जिसका पौरुष था अभिमानी
कोलाहल से दूर नगर के
जो सम्यक अभ्यास का था पुजारी।।
नतमस्त्क करता प्रतिबल को
लगाता घात विजय की खूब दिखा
प्रचंडतम धूमकेतु-सा आता
चाहे कुंज्ज-कानन में कहीं दूर पला।।
वन्यकुसुम सा खिला कर्ण
छटा सूर्य के तेज की सुनहरी
अस्त्र-शस्त्र विद्या में जो परांगत
उसका सच जानने को; व्याकुल के थे नर-नारी।।
सर्वश्रेष्ठ योद्धा अर्जुन जग का
बात ये मन में विघ्न-खलल थी डाली
कूद गया वो भरी सभा में
अपनी सिद्ध करने दावेदारी।।
अवेहलना कर भरे समाज की
देने धनंजय को चुनौती ठानी
एक शूरमा चुप क्यूँ रहता
जब गुरु द्रोण ने सीमा लांघी।।
स्तब्ध खड़े सब देखते उसको
आई विपदा कहाँ से भारी
जाति-गोत्र थे जिसकी पूछते
चुनौती अर्जुन ने स्वीकारी।।
अर्जुन को मैं प्रतिद्विंदी मानता
राधेय पहचान हमारी
निर्णय किया क्यूं बिना परीक्षा
ये गुरु की बात निराली।।
केवल राज-बगीचे में नहीं है खिलते
अद्भुत वीर, ब्रह्मचारी
चुन-चुनकर रखती वीर अनोखे
ये पृकृति की बात निराली।।
राजवंश उसका कुल पुछते
क्रूर नियति ने दृष्टि डाली
रंगत चहेरे की सबकी उड़ गई
तब भीष्म ने परिस्थिति संभाली।।
बचपन से जिसे छलती आई
न साथ यहाँ भी छोड़ी
भाग्यहीनता ने फिर वार किया था
पर न समाज ने आंखे खोली||
सुन विदर्ण हो गया उसका हृदय
छलनी अंतस तक कर डाली
गुण-ज्ञान का क्या-कोई मोल न जग में
इससे त्रस्त क्यूं दुनियाँ सारी।।
क्षोभ में भर कर राधेय बोला
वीरों को तो भुजदंड-बाहुबल से दुनियाँ जानी
जाति-गोत्र हो क्यूं पूछते
उससे समाजहित की होती हानि।।
शक्ति हो तो सामना करो अर्जुन
रणक्षेत्र में जाति-पाति की बात क्यूं लानी
क्षेत्रियों उसका धर्म श्रेष्ठ है
जिसने ललकार सभी स्वीकारी।।
गुरु कृपाचार्य फिर आगे आए
माया तुम पर क्रोध ने डाली
राजपुत्र से राजपुत्र या राजा द्वंद है करते
क्यूँ समझ न आती ये छोटी-सी बात तुम्हारी।।
द्वंद जो चाहते अर्जुन से तो
बताओं सत्ता कहाँ तुम्हारी
किसी राजवंश के वशंज
हो किसी उच्च जाति के अधिकारी||
तेजवान वो देदीप्यवान
उसका जनसभा मुखमंडल तेज निहारी
अजय-निडर वो निर्भक यौद्धा
कह सुतपुत्र चुनौती उसकी टाली||
सयोधन आता शाबाशी देता
निडरता से जिसकी यारी
अधर्म से जिसका नाता हमेशा
शुद्ध-बुद्धि बात कर डाली||
वीरों का न कोई जाति-गोत्र हो
प्रतियोगिता में ऐसी शर्त कहाँ से आनी
युवराज के हक मैं राजा बनाता
सुन जनता को बड़ी हैरानी।।
भावुक, दानी, समरशूर वो
शील-पौरुष से भरपूर
मन मोहक सौंदर्य जो ऊंच कदकाठी
प्रतिभट अर्जुन का वीर।।
अभिलाषा द्रोण की मरती दिखती
चमत्कृत जिसका गरूर
हरण तेज का कैसे करूंगा
गहन चिंतन में पड़े गुरू द्रोण।।
शिष्य न बनाऊं तो राह मिले कुछ
परेशान हताहत द्रोण
सर्वश्रेष्ठ अर्जुन कैसे रहेगा
जिसके कर्ण के हाथ में प्राण।।
युक्ति लगाते, चिंतन करते
जिससे स्वसुत से ज्यादा प्रेम
एकलव्य नही जो दक्षिणा मांग लूं
कर्ण ज्ञानी-ध्यानी-विद्वान।।
मुकुट उतारकर अपने सर से
ऐसे गहन दोस्ती की नींव थी डाली
अपमानित हो रहा एक वीर अनोखा
थी उसकी लाज बचानी।।
मुझ अभागी पर सयोधान की
हुई क्यूं कृपा भारी
इस भरी सभा में क्या-कोई हो भी सकता
ऐसा भी परोपकारी।।
बैचेन-चकित हो रहा देखता
गले लगा सयोधन बना हितकारी
हैरान-परेशान क्यूं हो मेरे बंधु
क्षुद्रोपहार कुछ ऐसा नहीं है जो समझो मुझे कल्याणकारी।।
बस एक महावीर का प्रशस्तिकरण ये
जिसके तुम अधिकारी
कौन सा बड़ा मैने त्याग किया है
क्यूं अंतस अचरज में डाली।।
स्वीकार करों जो मित्र मुझे तुम
एक प्राण दो देह हमारी
परवाह नहीं मुझे लोग क्या कहेंगे
कर्ण, तेरी मित्रता सबसे प्यारी।।
झर-झर आँसू बहते नयन से
आई उत्थान की मेरे बारी
उऋण कैसे हो पाऊंगा
तुम पर न्यौछावर; आज से जिंदगी सारी।।
घेर खड़े सब अंग के वासी
लोग हो शूरता पूजन के अभिलाषी
पुष्प, कलम, कुंकुम लाए चुनकर
मधु,दूध-नीर से स्नान कराते बारी-बारी।।
हवनकुंड यज्ञ सजने लगे
उमंग-तरंग, हर्ष-उल्लास भी दिखता भारी
पहचान ही लेते अपना आराध्य
सच इस बात को दुनियाँ मानी।।
जय महाराज, जय-जय अंगेश
जनता विकल पुकार उठी थी सारी
द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या, अभिमान कहो पर
होती हमेशा जनता, उज्ज्वल चरित्र की पुजारी।।
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