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सिलाई मन की उधड़ रही साँवरे रफ़ूगर
कि ज़ख्म दिल के तमाम सिल दे अरे रफ़ूगर
उदास रू पे न रंग कोई उदास टांको
करो न ऐसा मज़ाक तुम मसखरे रफ़ूगर
हज़ार ग़म पे छटाक भर की ख़ुशी मिली है
तुझे अभी कुछ पता नहीं मद भरे रफ़ूगर
कहीं पलक से टपक न जाये हरेक आँसू
भला हो तेरा न और दे मशविरे रफ़ूगर
यही भरोसा है एक दिन फिर से आ मिलेंगे
यहीं कहीं खो गये सभी आसरे रफ़ूगर
कि 'ब्रज' इसी इक उधेड़बुन में रहे हमेशा
छुपाऊँ कैसे ह्रदय के सब घाव रे रफ़ूगर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय धामी जी आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार...सादर
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गजल का प्रयास अच्छा हुआ है। हार्दिक बधाई। भाई समर जी के सुझाव से यह और निखर गयी है।
दूसरी बात 'दो' शब्द की जगह "दे" शब्द उचित होगा ,देखिएगा I
दरअसल "साँवरे रफूगर" प्रभु श्री कृष्ण को संबोधन किया है इसलिए मुझे लगा 'दो' सम्मान सूचक है...लेकिन आपके ध्यानाकर्षण से पता चल रहा है "दे" भी ठीक रहेगा...सादर
आदरणीय समर कबीर जी आपकी सूक्ष्म विवेचना से ग़ज़ल में निखार ही आएगा...जरूरी सुधार बिल्कुल किये जा सकते हैं...सह्रदय धन्यवाद
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'सुराख़ दिल के तमाम सिल दो अरे रफ़ूगर'---- इस मिसरे में सहीह शब्द 'सूराख़' २२१ है,दूसरी बात 'दो' शब्द की जगह "दे" शब्द उचित होगा ,देखिएगा I
'भला हो तेरा न और दे मशवरे रफ़ूगर'---इस मिसरे में सहीह शब्द 'मशविरे' है, देखिएगा I
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