दोहा पंचक. . . .
साथ श्वांस के रुक गया, जीवन का संघर्ष ।
आँचल अंक विषाद के, मौन हुआ हर हर्ष ।।
जैसे-जैसे दिन ढले, लम्बी होती छाँव ।
काल समेटे जिन्दगी, थमते चलते पाँव ।।
इच्छाओं की आँधियाँ, आशाओं के ढेर ।
क्या समझेगी जिन्दगी, साँसों का यह फेर ।।
पगडंडी पक्की हुई, क्षीण हुए सम्बंध ।
अर्थ क्षुधा में खो गई, एक चूल्हे की गंध ।।
पत्थर सारे मील के, सड़क किनारे मौन ।
अपने अन्तिम अंक को, पढ़ पाया है कौन ।।
नैनों की मनुहार को, नैन करें स्वीकार ।
मौन आग्रह शीत में, कौन करे इंकार ।।
देह काँपती शीत में, मुख से निकले भाप ।
अधरों के अनुरोध पर, अधर मिलें फिर आप ।।
वर्तमान सन्दर्भ में, न्यून हुए परिधान ।
पीढ़ी समझे आज की, इसको अपनी शान ।।
सर्व विदित संसार में, कुछ भी गया न साथ ।
फिर भी बन्दा अर्थ को, माने अपना नाथ ।।
दाता तेरे खेल को, जान सका है कौन ।
अभिमानी हर शोर को, पल में करता मौन ।।
काया का अभिमान जब, मिले मृदा के संग ।
साथ चिता के भस्म हों, नकली जीवन रंग ।।
हम जानें संसार में, सबको अपने साथ ।
संचित सब छूटे यहाँ, खाली रहते हाथ।।
कब लौटा है अर्श से, जाने वाला मित्र ।
यादों का बस फलसफा,बनता उसका चित्र ।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।
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