अमावास की रात अब बहुत सुकून देती है
वो भी भादों की अमावास हो तो क्या कहने
उसके अलावा हर रात को
किसी न किसी पहर चाँद आ ही जाता है
वो चेहरा
जिस पर मै नाज़ करता था
जिसे मै बस अपना समझता था
दिख जाता है इस निशापति में
इसकी चांदनी
इसकी झलक
ठेल देती है मुझे अतीत में
जब मै अपने चाँद को
हाथों में लेकर
देखा करता था
अद्भुत सौंदर्यपूर्ण, दागरहित
लगता, इसी से सृष्टि दृष्टिगोचर है
एक पूरनमासी,
जो अँधेरा भर गयी मेरे जीवन में
चाँद मेरे सामने था, और भी चमकदार
किन्तु मेरी निशा काली, और भी काली
वो मेरी हथेलियों से छलक कर,
अन्य अंक का हो गया था
इस गुरुत्व प्रभाव से दृग समंदर में
ज्वारीय तूफ़ान उमड़ पड़ा था
चक्षुपट जब तक रोकें
झरना अपनी सरहदें छोड़ चुका था
मेरे लिए बची थी
उजली रात की काली रजनी
भादों की अमावास
Comment
बहुत ही बढ़िया रचना है आशीष भाई , बधाई |
मुझको यह रचना रुची.
आदरणीय बागी जी,
ये आप लोगो की संगत का असर हुआ है|
आप लोगो का आशीर्वाद मिलता रहे बस|
आदरणीय satish सर ,
कविता पसंद करने के लिए धन्यवाद
आशीष भाई, आपके लेखन में व्यापक सुधार हुआ है, नवहस्ताक्षरों हेतु आप प्रेरणा श्रोत हो सकते है | बधाई स्वीकार करें |
वो चेहरा
जिस पर मै नाज़ करता था
जिसे मै बस अपना समझता था
दिख जाता है इस निशापति में
बधाई स्वीकार करें बंधुवर
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