मन का कसा जाना कसौटी पर मनस-उत्थान है
जो कुछ मिला है आज तक क्या है सुलभ बस होड़ से?
इस जिन्दगी की राह अद्भुत, प्रश्न हैं हर मोड़ से ||1||
अब नीतियाँ चाहे कहें जो, सच मगर है एक ही
जब तक न हो मन स्वच्छ-निर्मल, दिग्भ्रमित है मन वही
रंगीन जल है ’क्लेष’ मन का, ’काम’ भी जल पात्र का
जिससे सधे उद्विग्न मन वह ’संतुलन’ का ज्ञान है
भटकाव के प्रारूप दो ही, क्लिष्ट और अक्लिष्ट हैं
छूटे न यदि भटकन सहज ही, मानिये वे क्लिष्ट हैं
उन्नत तपस से शुद्ध हो मन, भक्ति है, उद्धार है
भव-मुक्ति है, आनन्द है, शुभ प्रेम का संसार है ||5||
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-- सौरभ
(ध्यातव्य : छंद की पंक्तियों के प्रयुक्त सभी कोमा वाक्यानुसार है नकि यति के लिहाज से. किन्तु, वाचन-क्रम में पंक्तियों में यति का आभास स्वयमेव हो जायेगा.)
Comment
वाह वाह वाह - मन झूम उठा इस रचनायों को पढ़कर, सनातनी छंदों में जो मिठास और सुगंध है उसका पूरा पूरा आभास इन्हें पढ़कर हो रहा है ! शिल्प की दृष्टि से निर्दोष एवं कथ्य की दृष्टि से अति उत्तम इन हरिगीतिका छंदों के लिए मेरा सादर साधुवाद स्वीकार करें आदरणीय सौरभ भाई जी !
//जिससे सधे उद्विग्न मन वह ’संतुलन’ का ज्ञान है
आदरणीय सौरभ जी आप द्वारा रचे गये उपरोक्त समस्त हरिगीतिका छंद अपने आप में अद्वितीय हैं ! इस हेतु आपकी लेखन प्रतिभा को नमन ! शत-शत बधाई मित्र !
आपके उत्साह भरे स्वागत के लिए दिल से धन्यवाद सौरभ जी, यहीं कहीं थे बस..
परम आनंद मार्ग सुगम नही है, बिल्कुल सही. पर कई बार हम सब वहाँ होते हुए भी महसूस नही कर पाते कि हम सुख की उस चरम सीमा पर हैं. वहाँ तक पहुँचना जितना दुर्गम है उसे पहचानना उस से भी कठिन...
लिखते रहिए...शांति है आपके शब्दों में.
सादर,
आराधना
आराधनाजी, सर्वप्रथम स्वागत है आपका. कहाँ थे भाई?
//इतनी अपेक्षाएँ मानव से कहाँ तक सही हैं?//
इन पंक्तियों में किसी व्यक्ति या जन से कोई अपेक्षा है ही नहीं, बल्कि वास्तविक, सोद्येश्य और साध्य जीवन का जरिया बताया गया है, जिसका अनुसरण किसी मानव को मानव-व्यक्तित्व के अन्नमय कोष के सतहीपन से उठा कर सर्वोच्च आनन्दमय कोष की व्यापकता तक पहुँचा देता है. वहीं सुख है.. चरम-सुख है.. आनन्द है.. परम-आनन्द है. यह परम-आनन्द ही मानव-जीवन का अंतिम लक्ष्य है. मानव के मन को (चित्त को) वृतियाँ कई तरह से प्रभावित करती हैं. उनका शोधन ही ’तपस’ है. इसको साधनेवाला ही मुक्त जीवन जीता है. इस मुक्त-जीवन से ही उत्फुल्ल प्रेम संभव है जिसमें कोई बन्धन नहीं होता. किन्तु, बिना अनुशासित जीवन के स्वतंत्र क्षणों को समझा भी नहीं जा सकता.
इस पूरी पक्रिया को अष्टांग योग के यम और नियम के अंतर्गत विधिवत बताया गया है.
आदरणीय सौरभ जी,
कई बार आपकी कविता पढ़ी. बहुत सुंदर!! पर इतनी अपेक्षाएँ मानव से कहाँ तक सही हैं?
सादर,
आराधना
सियाजी, इस रचना को आपने मान दिया है, आपका कोटिशः आभार.
आदरणीय अम्बरीषजी, छंदों पर आपकी हौसला अफ़ज़ाई मेरे लिये अमूल्य पुरस्कार है.आपको रचना पसंद आयी मेरा प्रयास सार्थक हुआ. हम आपके सहयोग के आकांक्षी हैं. सादर.
आपकी लेखनी को नमन,राह दिखाती प्रत्येक क्षण कि महत्ता बताती रचना...
बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें
मधु छंद यह हरिगीतिका, तप साधना आधार है,
निज को कसौटी पर कसा, तब छंद यह साकार है,
हो लक्ष्य अंतस साधना, आराधना स्वीकार है,
प्रभु आपने यह सब रचा, हम पर बड़ा उपकार है..
सादर:
प्रिय भाई अभिनवजी, रचनाओं पर आपकी दृष्टि उस रचनाकार को उत्साह से भर देता है. छंद पर नया-नया हाथ चला रहा हूँ. आपकी प्रतिक्रिया ने मुझे बहुत उत्साहित किया है.
सधन्यवाद.
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