त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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-------------- अंक - 3 ---------------
प्रबल बाबू को अध्यक्ष महोदय की बातें सुनकर कुछ खटका सा लगा और उन्होंने बीच में ही उन्हें टोकते हुए कहा - 'शायद, इस प्रसंग पर बात करने के लिए यह उचित समय नहीं है.'
अध्यक्ष भी मंजे हुए व्यक्ति थे, उन्होंने सिंह साहेब को यह कहकर निरुत्तर कर दिया - 'शायद आपको भूख लगी है? .. मैं खाने के लिए कुछ यहीं मँगा लेता हूँ '.
प्रबल बाबू को तत्क्षण कोई सटीक जवाब सूझ नहीं पा रहा था. उमाकांत जी की अनुभवी निगाहें सिंह साहेब के चेहरे का सूक्ष्म निरीक्षण कर रही थीं. वो कुछ बोलते, इसके पहले उमाकांत जी ही बोल पड़े - 'प्रबल बाबू ! हमलोग जनता के सेवक हैं, मिल-बैठ कर बातें करने का अवसर भला मिलता कहाँ है? ... इसे तो एक संयोग ही मानिए कि हम इस तरह अकेले आमने-सामने बैठे हैं. मैं यहीं खाना मँगवा लेता हूँ, खाते भी रहेंगे और बातें भी होती.. ’
प्रबल बाबू समझ चुके थे कि वो जाल में फँस चुके हैं. अनमने ढंग से उन्होंने कहा - 'नहीं, इसकी कोई जरुरत नहीं है.'
अध्यक्ष महोदय ने कुर्सी पर पहलू बदलते हुए कहा - 'प्रबल बाबू, मुझे प्रशंसक नहीं आलोचक ही पसंद हैं, जो जाने-अनजाने हो रही गलतियों का एहसास करा सकें. मुझे फ़ख्र है कि मेरी पार्टी का एक विधायक अत्यंत ईमानदार है और उसे ज़िम्मेदार बनाने का मुझे पूरा अधिकार है.'
यह कहते हुए उमाकांत जी ने अपनी गिद्ध-दृष्टि प्रबल प्रताप के चेहरे पर गड़ा दी. प्रबल बाबू हा.. किये उनकी तरफ देख रहे थे. अध्यक्ष की पैनी निगाहें सिंह साहेब के चेहरे पर आ रही शिकन और भावों की पड़ताल कर रहीं थीं. अब अध्यक्ष ने अमोघ अस्त्र का वार करना ही उचित समझा. .........
(क्रमश:)
Comment
भाई सतीशजी, आपने अपने स्पष्टिकरण में जो बात कही है, आप विश्वास करें, मैंने भी अपने अंदर के पाठक को इसी बात का संदर्भ दे कर समझाया था. लेकिन अनुमोदन हेतु आपसे पूछ लिया. फिर भी, कुछ रेशनलाइजेशन रचनाओं, विशेषकर कहानियों को, विश्वस्त बनाती है.
सादर.. .
आदरणीय सौरभ जी, मैंने जान - बुझ कर ऐसा लिखा है ..................... मैंने ये
सोचा कि जब अध्यक्ष ने ये कहा 'शायद आपको भूख लगी है? .. मैं
खाने के लिए कुछ यहीं मँगा लेता हूँ '. तो यहीं शब्द पर सिंह साहेब को
लगा की खाने की जगह से इतर खाना मंगाना शायद उचित नहीं है. मैंने संदेह का लाभ लेने
का भी प्रयास किया है --- " प्रबल
बाबू को तत्क्षण कोई सटीक
जवाब सूझ नहीं पा रहा था." ........................ ऐसी स्थिति में ऐसा
अटपटा जावाब संभव हो सकता है. फिर भी मैं आगे से आपकी चेतावनी पर ध्यान दूंगा
आदरणीय
//प्रबल बाबू समझ चुके थे कि वो जाल में फँस चुके हैं. अनमने ढंग से उन्होंने कहा - 'नहीं, इसकी कोई जरुरत नहीं है.'//
सतीशजी, इस पंक्ति ने कहानी की तारतम्यता को थोड़ा बाधित किया है. जब उमाकंत ने प्रबल बाबू को खाने के लिये ही न्यौता था तो खाना मँगाने की बात पर उनके मुँह से नहीं इसकी जरूरत नहीं कैसे कहवाया जा सकता है?
दूसरे, कहानी में पात्रों के वार्त्तालाप के क्रम में आवश्यक मनोवैज्ञानिक पक्ष को थोड़ा और उभारा जा सकता था.
यह अवश्य है कि कहानी में कसावट है.
शुभकामनाएँ.
वाह बढ़िया !! अब देखना है अमोघ अस्त्र किसपर वार करता है ... अच्छा ताना बाना बुना है सतीश जी हार्दिक बधाई !!
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