किसे नहीं अच्छे लगते
वफादार कुत्ते?
जो तलवे चाटते रहें
और हर अनजान आदमी से
कोठी और कोठी मालिक की रक्षा करते रहें
ऐसे कुत्ते जो मालिक का हर कुकर्म देख तो सकें
मगर किसी को कुछ बता न सकें
जो मालिक की ही आज्ञा से
उठें, बैठें, सोएँ, जागें, खाएँ, पिएँ और भौंकें
ऐसे ही कुत्तों को खाने के लिए मिलता है
बिस्किट और माँस
रहने के लिए मिलती हैं
बड़ी बड़ी कोठियाँ
और मिलती है
अच्छे से अच्छे नस्ल की कुतिया
और जब ऐसे किसी कुत्ते पर कोई संकट आता है
तो उसे बचाने के लिए एक हो जाते हैं
सारे वफादार कुत्ते और कोठी मालिक
और मजाल कि ऐसे कुत्तों पर कोई आँच आ जाए
ज्यादा से ज्यादा इनकी कोठियाँ बदल दी जाती हैं बस
कभी कभार कोई कुत्ता जोश में आता है
और जोर से भौंककर भीड़ इकट्ठा करने की कोशिश करता है
तो उसे पागल कहकर गोली मार दी जाती है
शहर को सुरक्षित रखने का जिम्मा
दर’असल गली के कुत्तों के पास है
ये दिन रात गलियों में गश्त लगाते
और भौंकते हुए घूमते रहते हैं
बदले में इन्हें मिलता है
कूड़े में गिरा बदबूदार खाना
और रहने के लिए मिलता है
गली का कोई अँधेरा, सीलनभरा, गंदा कोना
ये कविता नहीं है
श्रद्धांजलि है
उन गली के कुत्तों को
जो शहर की रक्षा करते करते
एक दिन किसी गाड़ी के नीचे आकर
कुत्ते की मौत मर जाते हैं
ऐसे कुत्तों की कोई नस्ल नहीं होती
इनकी कहीं कोई मूर्ति नहीं लगती
और ये अच्छे नस्ल की कुतिया
केवल अखबारों में छपी तस्वीरों में ही देख पाते हैं
मरने के बाद इनकी लाश घसीटकर
कहीं शहर से बाहर डाल दी जाती है
सड़कर खत्म हो जाने के लिए
ओ गली के आवारा कुत्तों!
तुम्हारी वफादारी है अपने शहर के लिए
इसलिए भले ही तुम्हारा जीवन
और तुम्हारी मौत गुमनाम हों
मगर ये गलियाँ, ये शहर
हमेशा तुम्हें याद रखेंगे
तुम हमेशा रहोगे कलाकारों के लिए प्रेरणा के स्रोत
और तुम्हारा जिक्र हमेशा किया जाएगा
कविताओं में
ओ गली के आवारा कुत्तों!
स्वीकार करो
शब्दों के सुमन
भावों की धूप
कविता के स्वर और एक कवि की पूजा
क्योंकि इस शहर के
तुम ही देवता हो
तुम न होते
तो ये शहर कब का
वफादार कुत्तों और कोठी मालिकों का गुलाम हो गया होता
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपके इस असीम प्यार से अभिभूत हूँ। क्या कहूँ? आप जैसे वरिष्ठजनों का आशीर्वाद मिलता है तो लगता है कि वह एक पल सफल हो गया जिस पल में इस कविता का विचार मन में कौंधा था। आप की बात बिल्कुल सही है ये कविता प्लान करके नहीं लिखी गई थी। बस हो गई थी। आप के द्वारा दी गई दो पंक्तियाँ आशीर्वाद और धरोहर हैं। इन्हें मैं सहेज कर रखूँगा। एक बार पुनः बहुत बहुत धन्यवाद।
धर्मेन्द्र जी, साधु-साधु !! आपकी इस रचना ने तो बस ’सुन्न’ कर दिया है. दिल और दिमाग़ दोनों निरुत्तर हैं. जिस बेबाकी मग़र शांत भाव से आपने भावों को शब्द दिये हैं वह चकित करते हैं. कई -कई तरह के व्यंग्य से गुजरने का मौका मिला है. व्यंग्य के पाँच-पाँच मूल सुदृढ़ स्तंभों को पढ़ा है मैंने. फिर तमाम उत्कृष्ट चितेरों की व्यंग्यकारी का गवाह हुआ हूँ.
आज कहूँ, कि आपकी प्रस्तुत रचना ’गली के कुत्ते और वफ़ादार कुत्ते’ का लिहाज उन रचनाकारों के स्तर से बखूबी शान निभाता हुआ है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
रचना के बिम्ब, बिम्बों का असर, इनकी धार और सबसे ऊपर सशक्त शिल्प के बावज़ूद रचना में बेलौस फैलाव इस कविता को किसी हद तक कालजयी बनाते हैं. ल्युटिन की दिल्ली हो या ऐसे ही किसी नवधनाढ्य शहर की अभिजात्य ओट हो, घिनौनेपन की सीमा तक संपृक्त जीवन जीती है --आम से दूर स्वयं में मुग्ध. और, अवसरवाद की आरी की निरंकुश धार के चीरे से दो वर्ग जनमते ही जनमते हैं, जिनका प्रतिनिधित्व दोनों तरह के कुत्ते कर रहे हैं. और आपकी कविता वो सबकुछ कहती जाती है जो किसी की संवेदना की परीक्षा लेती प्रतीत होती है.
ऐसी रचनाएँ, धर्मेन्द्र जी, लिखी या रची नहीं जाती, बल्कि बस हो जाती हैं. इस हो जाने पर आपको मेरी हार्दिक बधाई.
//ये कविता नहीं है
श्रद्धांजलि है
उन गली के कुत्तों को
जो शहर की रक्षा करते करते
एक दिन किसी गाड़ी के नीचे आकर
कुत्ते की मौत मर जाते हैं//
धर्मेन्द्रजी, जाने क्यों इस शब्द-समुच्चय के आखिर में मैं हठात् दो और पंक्तियाँ जोड़ने की कोशिश करने लगता हूँ --
"..और फिर, तीन-रंगों के पेवन वाले कपड़े से ढाँप-ढूँप कर अंगार भरे नारों की हुँकार के बीच
उन्हें गुमनाम जगह अता कर दी जाती है.. .. शायद ही फिर कभी याद करने के लिये... "
अद्भुत ! .. अद्भुत !! .. .. हार्दिक बधाई - हार्दिक बधाई.
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