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मुक्तक
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हांथों में ले कर ज़ाम रात भर,
बहकते रहे बे-लगाम रात भर,
लतीफ़े उछलते रहे मुशायरे में,
रोये गालिब खैय्याम रात भर ॥१॥

उपहास को विश्वास मिल गया,
कु-हास को अट्टहास मिल गया,
लतीफ़ों की मंथरा खुश हो गई,
कविता को वनवास मिल गया ॥२॥

कौवों को मधु-मास मत दीजिये,
कोयल को सन्यास मत दीजिये,
चुटकुलो को बिठाके सिंहासन पे,
कविता को वनवास मत दीजिये ॥३॥

गांव की गोरी ने पनघट बदला होगा,
या चांद चकोरी ने घूंघट बदला होगा,
कविता लिखना कॊई छॊटी बात नहीं,
मैना नॆं पिंजड़े मॆं करवट बदला हॊगा ॥४

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 14, 2012 at 9:21pm

चारों मुक्तक मंचीय आयोजनों के सच को बयां कर रहे है, चुटकुलों के आगे कविता दम तोड़ती नजर आती है जबकि भौड़े और दुअर्थी चुटकुलों को श्रोता पसंद कर रहे है, यहाँ तक की नामी गिरामी वरिष्ट साहित्यकारों को हुटिंग का सामना करना पड़ जाता है, बहुत ही उम्दा मुक्तक , बधाई कविराज |

Comment by Abhinav Arun on January 13, 2012 at 8:57pm

अच्छे मुक्तक ! पसंद आया kavi जी आपका ये अंदाज़ भी | हार्दिक बधाई !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 13, 2012 at 8:11pm

मुक्तक की ऊँचाइयों और इनसे निस्सृत होती गंभीरता पर आपको हार्दिक धन्यवाद, राजबुन्देली जी.

हाँ, एक बात, भाई शुभ्रांशुजी के सुझावों पर अवश्य ध्यान देंगे.  उनकी बात चौथे मुक्तक की चौथी पंक्ति में मैना और करवट के लिये  उचित है.

 

शुभ्रांशुजी से निवेदन :  कारक ’ने’ के कारण क्रिया कर्त्ता के अनुसार नहीं होगी. इस लिहाज से पनघट और घूँघट पुल्लिंग होते हैं.

 

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on January 13, 2012 at 7:47pm

आप,,,,सब को प्रणाम,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 13, 2012 at 11:22am

बहुत ही सुन्दर मुक्तक, आदरणीय बुन्देली साहिब साधुवाद स्वीकारें. 

Comment by Shubhranshu Pandey on January 13, 2012 at 10:00am

सभी मुक्तक एक से एक हैं और कितने अर्थ भरे हैं. वास्तविकता को मुक्तक में पिरो कर आपने कहा है. 

आखिरी मुक्तक में व्याकरण का लिंग दोष समझ में आ रहा है. चांद चकोरी और मैना स्त्रीलिंग माने जाते हैं. तो उन पंक्तियों की क्रिया स्त्रीलिंग सूचक होगी.  कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिये. 

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