दस फागुनी दोहे -
मन में संशय न रहे खुले खुले हों बंध ,
नेह छोह के पुष्प से निकले मादक गंध |
हुलस उलस इतरा रहे गोरी तेरे अंग ,
मेरे मन बजने लगे ढोल मजीरा चंग |
गोरी फागुन रच रहा ये कैसा षडयन्त्र ,
तू कानो में फूंकती आज मिलन के मन्त्र |
रंग लगाने के लिए तू बैठी थी ओट ,
मेरा मन सकुचा गया था अंतर में खोट |
होली होला होलिका सारे हैं उन्मुक्त ,
जिसका मुंह काला हुआ वही हो गया भुक्त |
खेत बगीचे देखिये फैले कितने रंग ,
फागुन होली खेलता आज प्रकृति के संग |
बैरी फागुन ले उड़ा बड़े बड़ों के होश ,
भांग ठंडई का नहीं इसमें सारा दोष |
रंग लगाने के लिए न मुहूर्त न काल ,
खुला निमंत्रण दे रहे साफ़ सुथरे गाल |
गलियाँ मंदिर घाट सब होली में गुलज़ार ,
आज मसाने में सजा बाबा का दरबार |
कौन जोगीरा गा रहा सारा रारा राग ,
बाहर बाहर भींगना भीतर भीतर आग |
|| अभिनव अरुण ||
(29022012)
Comment
सुन्दर दोहे फागुनी, बहकी-बहकी चाल.
खुला निमंत्रण दे रहे, कोरे-कोरे गाल..
मन में संशय ना रहे, खुले-खुले हों बंध.
मिल जुल रहना प्यार से, आ कर लें अनुबंध..
सादर:
अरुण भाई जी अगर असल बात यही है तो फिर यदि कोंई ऐसा जिसको तख्तीय और दोहे आदि की जानकारी है वो आपको इंगित करते हैं तो आपको वांछित सुधर कर लेना चाहिए या उस शेर /दोहे को हटा देना चाहिए
बाकी जिन बातों का उल्लेख आपने किया है सौरभ जी की उस टिप्पणी से मैं भी भ्रमित हुआ था मगर फोन पर बात करने से स्पष्ट हो गया कि उन्होंने जो बात कही है वो आपके सन्दर्भ में न हो कर एक ऐसे सज्जन के बारे में था जो ओ.बी.ओ. को टाटा बाय बाय कह चुके है और जाते जाते सौरभ जी को बहुत कुछ कह गये हैं...
मेरे ख्याल से आप उस प्रकरण से अंजान हैं इसलिए आप भी वही सोच रहे हैं जो मैंने सोच लिया था ...
वो प्रकरण और सौरभ जी का कम्नेट को जोड़ कर देखेंगे तो आप पर भी स्थिति स्पष्ट हो जायेगी,
वैसे सौरभ जी को उस प्रकरण के कुछ कटु शब्दों का प्रयोग यहाँ करने से बचना चाहिए था जिससे कोंई भी परिचित नहीं है क्योकि नए सिरे से पढ़ें तो यही भ्रम होता है कि बाते उनके लिए कही गई हैं जो इस चर्चा में शामिल हैं जिसमे मैं ओर आप शामिल हैं
अंत में यही निवेदन है कि मैं इस चर्चा को मैं ग़ज़ल और दोहा पर हो रही एक सामान्य चर्चा के रूप में ग्रहण कर रहा हूँ आप भी मन में खटास न आने दें
आपका छोटा भाई
यदि आप गुणी जन की सोहबत के मैं योग्य नहीं तो फिर जय ओ बी ओ !!
आदरणीय श्री वीनस इस फागुन में कुछ अनुभव वाकई अभिनव हो रहे हैं | मुझे हार्दिक दुःख है | मैं भी सब पढ़ देख रहा हूँ | मेरे एक उदीयमान सदस्य की टिप्पणी पर प्रति टिप्पणी को एक इशु बनाकार खुद मेरे बारे में जो भाषा प्रयोग की जा रही है मैं उसे भी मजबूती के साथ सहन कर रहा हूँ | साधुवाद साधुवाद आप सबका !!
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मुझे दुःख है की जब मैं कह रहा हूँ की मुझे तकतई नहीं आती तो यकीं क्यों नहीं किया जा रहा | जहां तक १० में ९ के या ३० में २७ के ठीक होने की बात है यह मेरे लय में लिखने के कारन होगा मात्र वाकई मैं नहीं गिन पाटा | इसका ज़िक्र मैंने सभी से किया है बागी जी से और राणा जी से भी |
ग़ज़लों और दोहों में तकतई करना मुझे अब तक नहीं आया | कोई मिला ही नहीं जो मुझे बताता |
आदरणीय बड़े भाई अरुण जी मैं इस बात को आपके द्वारा पिछले सवा साल से सुनता आ रहा हूँ
सीखना चाहें तो किसी का मिलना या न मिलना कोंई औचित्य नहीं रखता, और खोजेंगे तो कोंई न कोंई मिल ही जायेगा
खैर
हैरानी है कि आपके बाकी के दोहे कैसे सही है और तरही ग़ज़ल के १५ में से १३ शेर कैसे सही थे और अगर १५ में से १३ शेर सही थे और १० में से ९ दोहे सही हैं तो बाकी के शेर और दोहे को भी आप बहुत आसानी से सुधार सकते हैं
बातों को केवल स्वीकारने से बात कब तक बनेगी ? स्वयं सुधार भी तो आवश्यक है ....
जिस बात पर जानकारों का ध्यान नहीं गया या उन्होंने कहना जरूरी नहीं समझा उस बात को आशीष जी ने कहा और ओ.बी.ओ. के मूल तत्व ( एक दूसरे से सीखने और सिखाने का मंच) को प्रोत्साहित किया इसके लिए आशीष जी बधाई के पात्र हैं
सादर
सादर भाईजी,
सहभागिदाता और परस्पर साहचर्य की मांग यही है.
कल मैं भी कहीं दिखा जो राह भटकता, साथी, हाथ बढ़ा कर थाम लेना.
सधन्यवाद.
आदरणीय श्री आपकी हर बात शिरोधार्य है !! प्रयास होगा आपको शिकायत का मौका न मिले !!
बातों को अनर्थ न दें, अभिनव जी. यह मात्र आग्रह नहीं, स्पष्टता है. अन्वर्थ को बिना साधे और बिना उचित निराकरण के उपस्थिति को व्यतिक्रम देते हुए ’टा-टा’, बाय-बाय’ करने वाले या तो भगोड़े होते हैं या फिर अहंकारी. और जहाँ तक मैं जानता हूँ कि आप दोनों में से कोई नहीं हैं. हाँ, किसी मंच की गरिमा हम आप वरिष्ठों के आचरण पर निर्भर करती है. वरिष्ठ का अर्थ वयसजन्य प्रौढ़ता नहीं बल्कि इस मंच के प्रबन्धन और कार्यकारिणी के सदस्य होने के नाते या रचना कर्म के नाते है.
और ’तल्खी बढ़ी है’ कह कर आप क्या इशारा कर रहे हैं, भाईजी ? क्यों तल्खी बढ़ने लगी भाईजी? किसी अनुज या नवोदित की आवाज़ अन्य अर्थों में ली गई है, क्या यह कम बड़ी बात है ?
आग्रह है, हम समवेत बढ़ें. सस्वर बढ़ें. संतुलित और संयमित बढ़ें. सीखते हुए बढ़ें. सीख कर सिखाने के क्रम में बढ़ें.
सधन्यवाद
साथ ही आशीष जी वह शेर दो चार सबक वाला मैंने हैप्पी होली के अंदाज़ में लिखा था आपकी भावना को चोट पहुँचाने के लिए नहीं | मैंने समीक्षा आलोचना को कत्ताअन नाराज़गी की तरह कभी नहीं लिया और न ही मैं अपने को लेखक कवि मानता हूँ | ग़ज़लों और दोहों में तकतई करना मुझे अब तक नहीं आया | कोई मिला ही नहीं जो मुझे बताता | अभी इस मंच पर अग्रजों से निवेदन कर चुका हूँ देखिये सफलता मिलती है की नहीं |
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