आदर्शों पर चल कर तो देखो,
सर उठा कर जी कर तो देखो.
अत्याचार, ज़ुल्म, और भ्रष्टाचार के आगे
आवाज़ बुलंद करके तो देखो.
मन की राह कठिन है
चुनौतियाँ जटिल है,
पर एक बार आवाज़
बुलंद करके तो देखो
आत्मसम्मान से भर उठोगे
गर्व से सर उठा सकोगे (और)
एक बार जो चख लिया
आत्मसम्मान का स्वाद
तो हर चुनौती पार करने को
बलवला उठोगे
बस ज़रूरत है साहस की
ज़रूरत है हिम्मत की.
आदर्शों पर चल कर तो देखो,
सर उठा कर जी कर तो देखो.
मोनिका जैन "डोली "
Comment
ओबीओ पर आपकी पहली रचना का स्वागत है मोनिका जी. आपकी कविता सुन्दर और सार्थक सन्देश देती है, मेरी दिली बधाई स्वीकार करें.
अत्याचार, ज़ुल्म, और भ्रष्टाचार के आगे
आवाज़ बुलंद करके तो देखो.
kya lalkar hai. badhai
सर्वप्रथम आपके प्रयास को साधुवाद, मोनिकाजी. आपका आगमन आह्लादकारी है. ..!
प्रस्तुत रचना सुझावपरक है. किन्तु इसकी अंतर्धारा में प्रवाहित नैतिकता वैयक्तिक आत्मविश्वास के सुदृढ़ होने का कारण भी है. इस लिहाज से प्रस्तुत रचना आश्वस्त करती है कि सोच अभी भी उस तरह से प्रदुषित नहीं हो पायी है. और, अभी भी मार्गदर्शक हैं.
इतना अवश्य है कि आने वाले समय में रचनाकार से तुकांत या अतुकांत की कसौटी पर कुछ और की अपेक्षा रहेगी जो पद्य के लालित्य का सुरूचिपूर्ण परावर्तन होगा.
प्रस्तुत रचना की सार्थक प्रस्तुति पर हार्दिक शुभकामनाएँ और ढेरम्ढेर बधाइयाँ.
//बस ज़रूरत है साहस की
ज़रूरत है हिम्मत की.//
मोनिका जी , बिकुल सही कह रही है, यदि साहस और हिम्मत हो तो क्या नहीं हो सकता है, सब कुछ संभव है, बहुत ही खुबसूरत रचना , बहुत बहुत बधाई इस भावाभिव्यक्ति पर ।
prerna dayak sarahniye post monika ji.
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