बचपन का क्या बयान करू, कुछ याद नहीं रहा दुनियादारी में,
बस ये नहीं भूला की माँ जागती थी रात भर, मेरी हर बीमारी में.
मै भूखा हूँ, मुझको सताया है ज़माने भर ने नादान समझ कर,
ये बातें उसको कैसे पता चल जाती है, घर की चाहर-दीवारी में.
उसे भी मालूम है कि, घर के बाजू में मलमल की कई दूकाने है,
बेटे की हौसला अफजाई करती है सूती धोती की खरीददारी में.
सीना तान के करता हूँ हर तूफानी हवा-पानी का सामना मै.
मेरी माँ की दुआ की छतरी साथ चलती है मेरी रखवारी में.
मलाल है मुझे गुडिया ही खेलने को मिला, बहनो से छोटा था,
राखी के सौ रुपये से, घरोदे की मुक्कमल छत आई मेरी बारी में.
मै क्यूँ अपनी माँ को इस कदर चाहता हूँ, ये बात समझ गई!
मेरी शरीक-ए-हयात भी जब पहुँच गयी माँ की बिरादरी में.
उधार की कील पर, दो कमरो के ताबूत जैसा था ये मकान,
माँ की चिट्ठी आई, और घर रोशन हो गया दुआ की चिंगारी में.
Comment
वाह
बचपन की बातों को कितने सुन्दर ढंग से याद किया है
हर शेर सुन्दर बन पड़ा है
वाह वा
आनंद आ गया
वैसे बचपन में आप बिलकुल बच्चे ही थे
हा हा हा
योगराज जी, आपकी प्रसंशा से गदगद हो गया हू, बहुत बहुत धन्यवाद.
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल के ज़रिये माँ को बेहद प्रभावशाली काव्यांजलि पेश की है आदरणीय त्रिपाठी जी. मेरी बहुत बहुत मुबारकबाद स्वीकार करें.
आशुतोष जी सोचते सब लोग होंगे, बस दुनियादारी मे इधर उधर भाटक जाते हैं, बाकी तो मा का प्यार दिल की गहराइयों मे हमेशा बसता है. आपकी हौसला अफजाई से बहुत फ़र्क पड़ेगा मेरी रचनाओ पर भविष्या मे. धन्यवाद.
Dhanyavaad Mahima Ji.
माननीयप्रदीप जी, धन्यवाद.
उधार की कील पर, दो कमरो के ताबूत जैसा था ये मकान,
माँ की चिट्ठी आई, और घर रोशन हो गया दुआ की चिंगारी में.
maa tujhe salam. badhai.
Wahid bhai bahut bahut dhanyavaad.
मर्मस्पर्शी भाव पेश किये आपने राकेश जी| बहुत ख़ूब..
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