भोर होने आ चली, काली निशा का चर्म है.
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राकेश भाई मैं आपका विशेष धन्यवादी हूँ कि आपने ग़ज़ल के फार्मेट को स्वीकारा और अपनी ग़ज़ल पर अनेक चरणों में मेहनत की और इसे शिल्प के आधार पर सम्पूर्ण ग़ज़ल बना डाला
निः संदेह अब आपकी ग़ज़ल मूलभूत शिल्पगत खामियों से मुक्त है
आप विशेष बधाई के पात्र है
ओ.बी.ओ. मंच आप जैसे खुले विचार के रचनाकार को पा कर सार्थक हो रहा है
पुनः बधाई, धन्यवाद और आभार
श्री वीनस जी, सहर्ष सूचित कर रहा हूँ की निम्न परिवर्तन किया है:
समझ उपवन (1222): मान उपवन (2122)
आदेश घोषित: ज्ञान(21) मिलता(22)
अब लगता है कविता पूरी तरह बह्र मे हो गयी है.आभार.
कट गए सद्दाम या लादेन, गद्दाफी यहीं,
बधाई, यह मिसरा बिलकुल सही हो गया है
स + ड़क = १२ होता है इसे हम सड़ + क नहीं बोल सकते और न ही २१ में गिन सकते हैं
आदेश घोषित, = २२१ २२ होता है जिसे २१२२ में नहीं बाँधा जा सकता है
मान्यवर अभिनव जी, आपकी 'वाह' सर आँखों पर. धन्यवाद
श्री वीनस जी, आपकी इतनी मेहनत के लिए तहे दिल से आभारी हूँ.
सम(2)झ(1) उप(2)वन(2): ऐसे पढ़े.
बाकी के परिवर्तन निम्न हैं:
फी सड़क पर: को मैने यह कर दिया: फी(2) य(1)हीं(2).
बोला गया तब: आ(2)दे(1)श घो(2)षित(2)
एक बार पुनः धन्यवाद देना चाहूँगा.
आपकी ग़ज़ल में मूल भाव है वह बखूबी निखर कर सामने आ रहा है यही लेखन की सार्थकता है !
लूट, हिंसा और लिप्सा से निकलिए शेख जी,
भोर होने आ चली, काली निशा का चर्म है.
दौरे हाजरा पर गंभीर टिप्पणी करते शेरों के लिए दिली दाद कबूलें श्री राकेश जी !!
२१२२ / २१२२ / २१२२ / २१२
भोर होने / आ चली, का / ली निशा का / चर्म है.
२१२२ / २१२२ / २१२२ / २१२
तीन मिसरों में लय भंग हुई है यदि सुधर लें तो ग़ज़ल बा बह्र हो जायेगी
Galti se aapka comment delete ho gaya:
Vindhyeshwari prasad tripathi commented on Rakesh Tripathi's blog post 'मांग मत अधिकार अपना'
मान्यवर त्रिपाठी जी, सौरभ जी एवं वीनस जी, आप लोगो के इस कविता रूपी ग़ज़ल को पढ़ा और इतनी बारीक टिप्पणी दी है की फिर से इस मंच पर आना सफल लग रहा है. धन्यवाद.
आदरणीय सौरभ जी: ’निकलिए' ही होगा. मैं अभी ठीक कर देता हूँ. मैने इसे शुरू मे कविता के जैसाही लिखा था, एक तुकंत कविता. पर ओ बी ओ पर आया और ग़ज़ल की कक्षा के कुछ पाठ पढ़े तो लगा की अच्छी ग़ज़ल बन सकती है, तो ये प्रसास रहा.
माननीय वीनस जी: काफिया सच मे कठिन था और काफ़ी वक्त लगा भाव और शब्द को काफ़िए मे बंद करने मे. मुझे लगता है की "बोला गया तब सब्र और विश्वास रखना धर्म है" मे शायद लय कुछ खराब हुई है क्योकि 21 की बजे 22 हो गया है शुरू मे, और कहीं हो तो बेझिझक इंगित करें. आभारी रहूँगा.
बह्र ए रमल मुसम्मन महजूफ पर कही गयी ग़ज़ल. काफ़िया बिला शक़ कठिन लिया गया है. कोशिश अच्छी हुई है. वैसे कहन का निर्वहन और अच्छी तरह से हो सकता था. जिससे तथ्य बखूबी उभर कर आ सकते थे. लेकिन जिस ढंग से प्रयास हुआ है वह संतुष्ट करता है.
लूट, हिंसा और लिप्सा से निकालिए शेख जी में ’निकालिए’ शायद टंकण त्रुटि है. यह ’निकलिए’ होगा. अन्य सभी मिसरों को तक्तीह करें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी.
एक अच्छी कोशिश के लिये पुनः बधाई.
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