निजत्व की खातिर
कर्तव्यो की बलिवेदी से
कब तक भागेगा इन्सान
ऋण कई हैं
कर्म कई हैं
इस मानव -जीवन के
धर्म कई हैं
अचुत्य होकर इन सबसे
क्या कर सकेगा
कोई अनुसन्धान
कई सपने हैं
कई इच्छाये हैं
पूरी होने की आशाये हैं
पर विषयों के उद्दाम वेग से
कब तक बच सकेगा इन्सान
भीड़-भाड़ है
भेड़-चाल है
दाव-पेंच के
झोल -झाल है
इनसे बच कर अकेला
कब तक चलेगा इन्सान
कौन है ईश्वर
जीवन क्या है
मै कौन हूँ
क्यूँ आया हूँ
जिज्ञासायों के कई भंवर हैं
डूब के इनमे
अपनों से कब तक
मुख मोड़ सकेगा इन्सान
Comment
नमस्कार महिमा जी, बहुत अच्छी रचना, बधाई आपको|
बहुत सुंदर रचना. महिमा श्री, आपको इस सर्वश्रष्ठ रचना पर बहुत-बहुत बधाई.
main khud se hairaan hoon ki itni sundar rachna mere padhe bina kaise chhoot gai aaj fir aapki is post ki data dekhi sab clear ho gaya us vaqt me baahar gai hui thi apni mom ke antim safar me kuch din gamgeen thi .
atah aaj ye rachna padhkar dil khush ho gaya really this creation deserve appreciation.ati sundar,sashaqt abhivyakti.
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