जिंदगी ले के चली, एक ऐसी डगर,
राह के उस पार, चलते हैं हम सफ़र.
रात और दिन, मील के पत्थर जैसे हैं,
मोड़ बन जाते कभी, हैं चारों पहर.
फादना पड़ता है, दीवारें अनवरत,
ढूँढना चाहूँ मै, 'उसको' जब भी अगर.
शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.
द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर.
जिंदगी में लेने आता, एक बार पर-
बैठती हूँ रोज, 'बस्तीवी' सज संवर!
Comment
भाई वीनस जी, सादर! आप रचना को प्रणाम करें और और मै आपको प्रणाम :)
आदरनीया सीमा जी, जी जरुर मेहनत करेंगे शिल्प एवं कहन दोनों पर, आपका आशीर्वाद मिलता रहे बस.
शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.
नयापन आज है कल यही पुराना हो जायेगा
नए की तलाश में कवि का मन आकुल होता है .....
अज्ञेय कहते हैं - जो बिम्ब पुराने हो जाएँ वह उसी तरह घिस जाते हैं जैसे पुराने पीतल के बर्तन काले पड़ जाते हैं
आपकी नवीनता की तड़प आपकी श्रेष्ठता को दर्शाती है
सादर
रचना को प्रणाम है
माननीय महिमा जी, सादर धन्यवाद.
आदरणीय रवीन्द्र जी एवं शशि जी, सदर नमस्कार. जी वजह फरमाया शाही जी ने, मगर 'worker and workaholic' मे अंतर होना ही चाहिए. मेरा ये मानना है. धन्यवाद.
मान्यवर राकेश जी,
सादर !
अंतर्मन के भावनाओं की सुन्दर शब्द-सज्जा !
बहुत बढ़िया !
बहुत अच्छी कविता है,राकेश जी.
द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें, बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर. बहुत सुन्दर पंक्तियाँ.
भाई आनंद जी एवं भाई त्रिपाठी जी, सादर धन्यवाद.
श्री विन्ध्येश्वरि जी: आप तो 'Gondavi' साहब के जिले से निकले, उन्हे मैं अपना द्रोणाचार्य मानता हूँ.
जहाँ तक इस फोरम से सीखा है, मैने ग़ज़ल लिखने का प्रयत्न किया है, 2122/2122/2212/ की तर्ज पर. अब गुरु जनो से आग्रह है की वे बतावें की कितना सफल रहा हूँ. धन्यवाद.
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