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 माँ की बात सुनते ही पिताजी के दोनों बड़े भाईयों का चेहरा ऐसा हो गया था मानो दोनों गाल पर किसी ने एक साथ तमाचा मारा हो | एक क्षण के लिए तो ऐसा लगा था कि  वे उत्तेजित होकर न जाने क्या कर बैठें या फिर नवांगतुक को साथ लेकर घर छोड़कर ही न चले जाएँ | पर , ऐसा कुछ नहीं हुआ | नवांगतुक जो पिताजी के सबसे बड़े भाई याने मेरे दादाजी के साले थे , असहज हो गए थे और सहज होने के प्रयास में फर्श पर रखे अपने पांवों को जोर जोर से हिला रहे थे | काफी देर तक निस्तब्धता छाई रही | हमेशा हाथ भर लंबा घूंघट निकालकर किवाड़ की ओट से कम से कम बात करने वाली माँ की तीखी और स्पष्ट बात ने मुझे बिना प्रयास समझा दिया कि बारह बरस पहले जो कांटे परिवार जनों ने माँ के दिल में चुभोए थे , उनकी जलन आज भी उतनी ही तेज और ताजी है | माँ तो कहते समय यह भी भूल गयी थी कि बरामदे उन दोनों के अलावा मैं भी बैठा हूँ जो उनका बेटा है और साथ बैठे हैं वह नवांगतुक याने दादाजी के साले साहब याने श्री श्रीधर मिश्र , जो अपने सात बच्चों में तीसरे स्थान पर जनमी ग्रेज्युएट कन्या का विवाह प्रस्ताव मेरे लिए लेकर आये हैं |

 

 

बारह साल पहले जब पिताजी की मृत्यु हुई थी , मैं पन्द्रह वर्ष का था | सविता और निशा मुझसे दो और चार वर्ष छोटी थीं | आज मैं सत्ताईस का हूँ | पिताजी की मृत्यु के पूर्व बीता जीवन सरल , सीधा सादा , प्यार भरा था , जिसमें याद रखने लायक कुछ विशेष हो ऐसा कुछ न था | हाँ , आज बारह बरस बाद मैं यह कह सकता हूँ कि माँ पिताजी दोनों समझदार अवश्य रहे वरना पिताजी की मृत्यु के समय ग्यारह वर्षीय निशा अंतिम संतान न होती और हम केवल तीन अर्थात एक भाई और दो बहन न होकर ...| मैं दस वर्षों के अतीत पर इस कल्पना को लेकर नजर डालता हूँ तो सिहर उठता हूँ | माँ ही कभी कभी हम लोगों को बताया करती थीं कि मैं तो केवल पांचवीं पास हूँ , जिंदगी का सारा ज्ञान तो मैंने तुम्हारे पिता से ही सीखा है | ज्ञान जिसमें साहस , धैर्य , व्यवहार कुशलता , सदाचारिता कूट कूट कर भरा हो | मैं आज आपके सामने यह स्वीकारोक्ति करता हूँ कि मैंने माँ को प्रगतिशील कभी नहीं माना | हरचट , तीजा , करवा चौथ के साथ हफ्ते में सोमवार , गुरूवार के उपवास , सुबह पूजा , शाम को बिना नागा आरती , बीमारी के अलावा बिना स्नान पूजन के किसी को खाना तो क्या नाश्ता भी नहीं | इन बातों ने कभी यह सोचने का अवसर ही नहीं दिया कि वे क्यों तीज त्यौहारों पर मंदिर जाने को ढकोसला मानती हैं | पर , पिताजी की मृत्यु के बाद माँ के निर्णयों ने पूरे परिवार को बौखला दिया था | पारिवारिक मान्यताओं की दुहाई , धर्म और रिवाजों के पूरे न होने पर पिताजी की आत्मा के भटकने का भय , और न ही समाज का डर , इनमें से कुछ भी तो माँ को अपने निर्णय से डिगा नहीं पाया था |  मुझे ठीक से याद है रात दो बजे सरकारी अस्पताल के बेड नंबर सात पर केंसर से पीड़ित पिता की दो माह के अनशन के बाद हुई मृत्यु | वे डेढ़ वर्ष से अन्ननली के केंसर से पीड़ित थे | आखरी के दो माह में अन्न तो दूर जल भी पिताजी के पेट में नहीं जा पाया था | ओंठों पर बर्फ के टुकड़े रखकर उनकी प्यास बुझाते थे | दिन भर में एक बार अवश्य ही पिताजी हम तीनों को पास बुलाकर सिर पर से हाथ फेरते थे | रात में उनके पाँव दबाते दबाते न जाने मैं कब सो जाता था और माँ उसको तो उन दो माहों में हमने सोया देखा ही न था | उन दिनों घर में मिर्च मसाले का उपयोग पूर्णतः बंद था | माँ के कुछ कहे बिना ही हम सब समझ जाते थे | छोटे मामा उन दिनों जैसे ईश्वर का अवतार रूप तबादला होकर उसी शहर में आ गए थे | घर में धीरे धीरे बात करना तथा चावल और सादी दाल खाना हमारा स्वाभाव बन गया था | बाद में तकलीफ वाले दिनों में सादी दाल और चावल खाने की आदत बहुत काम आई | केवल चावल भी नमक , प्याज और पानी के साथ हम आनंद पूर्वक खा लेते थे | घर में शनैः शनैः प्रतिदिन पैर जमाती पिताजी की निश्चित मौत ने पहले हमें दहलाया था और फिर धीरे धीरे इसने जैसे सबकी स्वीकरोक्ति प्राप्त कर ली थी | इस बीच पिताजी के दोनों बड़े तथा एकमात्र छोटे भाई उनको देखकर चले गए थे | पिताजी को अंतिम कुछ माह वेतन भी नहीं मिला था | तब छोटे मामा ने ही सहारा दिया था | शायद यही देखकर मैंने पिताजी की मृत्यु पर माँ के द्वारा लिए गए निर्णयों को आर्थिक मजबूरी में लिए गए निर्णय समझ लिया था | पर मेरी वह धारणा आज दूर हो गयी | माँ के अंदर समाज में व्याप्त कुरीतियों से लड़ने का अदम्य साहस ही उनके चुनौती पूर्ण निर्णयों के पीछे रहता है , यह आज सिद्ध हो चुका है | पिताजी के दाह संस्कार के दूसरे दिन की बात है , सभी नाते रिश्तेदार पहुँच चुके थे | रिवाज के मुताबिक़ तीसरे रोज अस्थियां एकत्रित कर उन्हें ठंडा करने गंगा लेकर जाना होगा , इस विषय पर चर्चा हो रही थी | मैं पन्द्रह वर्षीय पिता को अग्नि देने वाला चन्दन भी बुजुर्गों के मध्य बरामदे में बैठा था | सभी आपस में चर्चा कर कार्यक्रम तय कर रहे थे | छोटे मामा भी वहीं बैठे थे | इतने नाते रिश्तेदारों के इकठ्ठा होने पर घर के खाली अन्न पात्रों को भरने का तथा पिताजी की अंतिम क्रिया को अर्थ संपन्न करने का उत्तरदायित्व उन्होंने बखूबी चुपचाप अंजाम दिया था | अब भी वे उतने ही शांत भाव से होने वाली बातचीत को सुन रहे थे | अंदर के कमरे से औरतों की रोने की आवाज आ रही थी जो निश्चित रूप से कुछ ही क्षणों में बंद होने वाली थी | माँ अब किसी के आने पर उनके साथ मिलकर रोती नहीं थी | शून्य में देखते देखते कुछ आंसू उसके गालों पर बह आते हैं और बस कुछ भी नहीं | सविता और निशा पिछले चौबीस घंटों में अधिकतर घर के किसी कौने में ही मिलीं , जैसे वे सब कुछ समझकर भी कुछ नहीं समझ पा रही हों | बाहर होने वाली चर्चा पर माँ के कान भी लगे थे | तभी तो उनकी आवाज आई , दादाजी इस संबंध में मैं भी कुछ कहना चाहती हूँ | न तो गंगा ले जाकर अस्थि ठंडी करने की मेरी हैसियत है और न ही और न ही उसमें मेरा विश्वास और न ही दसवीं , तेरहवीं के ठठकरम करने की हैसियत और न ही इन पर विश्वास | ज़िंदा आदमी के लिए जो दवा दारु करना था सब किया , पर अब बरबाद करने करने को मेरे पास कुछ भी नहीं है और न और कर्ज लेकर मैं अपने बच्चों को आगे भूखा रखने की प्रबंध करूंगी | इसके बाद माँ की जो लानत मलामत हुई , हुई , पर माँ ठस से मस नहीं हुईं | नाराज रिश्तेदार उसी दिन शाम तक वापस हो गए | उसके बाद साल दर साल पूरे छै साल गुजर गए | माँ सिलाई करके , घरों में अचार , बड़ी , पापड़ बनाकर और मैं ट्यूशन करके घर चलाते रहे | कहना न होगा कि इस मध्य छोटे मामाजी और अन्य हितेषियों से यथासंभव मदद भी प्राप्त हुई | छै बरस गुजर गए |

 

 

 

मैं एम.ए. हुआ नौकरी लगी | सविता और निशा दोनों ही बड़ी हो गईं थीं | उनके विवाह के प्रस्ताव लेकर परिवार तथा समाज के बहुत लोग आये पर माँ ने विनम्रता पूर्वक लौटाया कि जब तक लड़कियां पढ़ लिखकर नौकरी लायक नहीं हो जातीं मैं उनकी शादी नहीं करूंगी | एक बार फिर माँ उलझनों में पड़ी पर इस बार मैं उनके साथ था | मैं सोचता था कि वे अगर नौकरी करेंगी तो योग्य वर मिलने में आसानी होगी और शायद दहेज भी कम लगेगा | हुआ भी कुछ वैसा ही , सविता ग्रेजुएशन के बाद बी.एड. करके शिक्षिका हो गयी और निशा प्रतियोगी परिक्षा पास करके पब्लिक सेक्टर में क्लरीकल जाब पा गयी | पिछले एक साल में दोनों का विवाह भी हो गया | माँ ने पिताजी की मृत्यु के बाद मिले पैसों में से कुछ को फिक्स करके रखा था , वे ही काम आये | कुछ कर्जा भी लेना पड़ा लेकिन सब अच्छे से निपट गया | हाँ , बरामदे में मेरे साथ बैठे ये सज्जन किसी काम न आये | यहाँ तक कि विवाह समारोहों में भी शामिल नहीं हुए | और आज कितनी बेशर्मी से ये लोग आये हैं | पर माँ की वह बात , मुझे याद आया एक बार स्कूल से जब मैं वापिस आया था , दादाजी हडबडाहट में झोला उठाकर जा रहे थे , माँ के हाथ में सब्जी काटने का चाकू था | इतने बरसों के बाद भी क्रोध से मेरी आँखें अंगार हो गईं | मेरी समझ को जैसे लकवा मार गया था | मैं दिल दिमाग में अंगार भरे चुप बैठा था | दादाजी ने अपने साले की लड़की को रिकमंड करते हुए कहा था श्रीधर इस घर में शादी होगी तो दान दहेज की बातें तो करना ही मत , बहुत मार्डन विचारों की है हमारी बहु | और माँ का जबाब था , मैंने अपनी दो लड़कियों का विवाह किया है , मैं जानती हूँ दहेज के कष्ट को | पर मेरी एक शर्त है , कोर्ट मेरिज होगी और बहु को भी नौकरी करना होगा ताकि कोई अनहोनी होने पर वो अपने पैरों पर खड़ी हो | मैं जानती हूँ कि औरत की मदद करने की कीमत ससुर , जेठ भी माँगते हैं | यही वह बात थी जिसने निस्तब्धता फैलाई थी | इसी बात ने वर्षों पहले के उस चित्र का मतलब आज मुझे समझाया था और मेरी आँखों में अंगार भरे थे | माँ ने ही उस निस्तब्धता को तोड़ा भी था | अपनी सिसकियों से | पिताजी की मृत्यु के बाद बंद सिसकियाँ आज पुनः फूट पड़ीं थीं | कहना न होगा कि माँ ने और मैंने , दोनों ने श्रीधर मिश्र की लड़की को अपने परिवार में स्वीकार कर लिया था | मेरी पांचवीं पास माँ ने दादाजी से कहा था , हम मार्डन नहीं हैं , पर फालतू के ठठकरमों पर हमारा विश्वास नहीं है | आज इतने वर्षों बाद , जब मैं अपनी बेटी के विवाह के लिए समाज में संपर्क कर रहा हूँ और दहेज की लानत तथा सामाजिक रूढ़ियों से मेरा साक्षात्कार हो रहा है तो मुझे लगता है माँ को प्रगतिशील शब्द नहीं मालूम था , पर वह थी प्रगतिशील |                  

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Comment by Shubhranshu Pandey on April 11, 2012 at 8:22pm

एक सशक्त कहानी...... जिस प्रगतिशीलता की बात आज होती है उसके विद्रुप रुप को हम आज महसूस करते है...और ऎसी अनेक प्रगतिशील महिलाएँ हमारे आस-पास होती हैं जिन्हें हम अनपढ और गवाँरु का नाम देते हैं ....

Comment by MAHIMA SHREE on April 2, 2012 at 4:36pm
शुक्ल जी नमस्कार.,
बहुत ही अच्छी कहानी और उसका प्लाट ...आँखे नम हो गयी मेरी... सच है सामाजिक कुरीतिओं से लड़ने के लिए मन में दृढ संकल्प और परस्थियों
से लड़ने का माद्दा होना चाहिए... बधाई आपको..
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 2, 2012 at 1:56pm

adarniya shukla ji, sadar abhivadan. maa sadev pragatishil hoti hai. sundar lekh . badhai.

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