कोई बाबा निर्मल नहीं
सब मन के बड़े मैले हैं ,
दौलत के ढेर पर बैठे
ये ठग बड़े लुटेरे हैं ,
व्यापार इनका धर्म है
धर्म का करते कारोबार ,
कोई पाप इनसे छूटा नहीं
ह्त्या हो या यौनाचार ,
लिंग भेद ये मानते नहीं ,
बच्चा हो या नार ,
आश्रम में इनके मरते बच्चे ,
रास रंग के इनके किस्से
गली गली में फैले हैं ,
कोई बाबा निर्मल नहीं
सब मन के बड़े मैले हैं ||
नेता अफसर चरण छूते ,
शासन इनका दास है ,
चोर उचक्के इनके चाकर ,
डाकू हत्यारे खास हैं ,
सब ओर फ़ैली बदहाली , तंगी ,
इन चोरों की ही है गिरोहबंदी ,
फंस जाते इनकी साजिश में
मेरे देश के लोग कितने भोले हैं ,
कोई बाबा निर्मल नहीं
सब मन के बड़े मैले हैं ||
एक ने सिखा सिखा कर योगा
धन अथाह है जोड़ा ,
विदेशी स्त्रियों के साथ नाच नाच कर
दूसरा सिखाये , ऐसे प्रेम कर ,
एक सुलझाए झगड़े अम्बानी के
तो , दूसरे के देखो पाठ ,
भूखों के देश में सिखाता है
जीने का आर्ट ,
सूची इनकी लंबी है ,
जगह की थोड़ी तंगी है ,
हम नहीं दे रहे किसी को ज्ञान ,
खोलो आँखें , दो थोड़ा ध्यान ,
इन बाबाओं के कारनामे बड़े काले हैं ,
दौलत के ढेर पर बैठे ,
ये ठग बड़े लुटेरे हैं ,
कोई बाबा निर्मल नहीं ,
सब मन के बड़े मैले हैं ||
Comment
कोई बाबा निर्मल नहीं ,
सब मन के बड़े मैले हैं ||
satya bruyaati. badhai sach kahne hetu. adarniya shukla ji sadar abhivadan ke saath.
आश्रम में इनके मरते बच्चे ,
रास रंग के इनके किस्से
गली गली में फैले हैं ,
कोई बाबा निर्मल नहीं
सब मन के बड़े मैले हैं ||
प्रिय शुक्ल जी
एक प्रभावी सशक्त सामयिक एवं प्रासंगिक रचना ..........; शुक्ला साहेब निःसंदेह आप बधाई के पात्र हैं
कोई बाबा निर्मल नहीं , नहीं नहीं ऐसा नहीं , वो तो निर्मल है, बिलकुल निरे मल ही है जो निरे माल के लिए बाबा , आभा और कृपा कृपा का खेल खेल रहा है, और हम अज्ञानी निरे मुर्ख की तरह रुपैया लुटा रहे है, हां यह अलग बात है कि जिसको वास्तव में रुपैया कि जरुरत है उसके लिए फूटी कौड़ी नहीं निकलती ( अपवाद हर जगह है , मैं अपवाद की बात नहीं कर रहा )
अरुण जी , आपने जिसको केन्द्रित करते हुए इस रचना को सृजित किये है उसमे आप सफल है , एक बार पुनः बधाई |
आज हर क्षेत्र में बाज़ार और विज्ञापन हावी है | प्रचार से क्षणिक प्रसिद्धि और अर्थ दोनों सध रहे हैं | सच झूठ का फैसला हम आपको ही करना है | यह भी सत्य है कि कोई सामान्य बयानबाजी भी हितकर नहीं | हर जगह काला सफ़ेद दोनों हैं | दृष्टि हमें अपनी खुली रखनी है ||
ओबीओ पर भेड़चाल को नहीं तथ्यों और सच्चाई को अनुमोदन मिलता है, विंध्येश्वरी जी. आपकी बात सनातन सी है.
गुरुदेव आपके समर्थन से अभीभूत हूं मैं सोच रहा था कहीं इसपर भी कोई नया बवाल न खड़ा हो।आपने सही कहा कि सभी बाबा एक जैसे नहीं होते।मेरा मानना है संसार अभी बहुत अधिक भ्रष्ट नहीं हुआ है।अभी मानवता बहुत अधिक नष्ट नहीं हुई है।हां यह अवश्य है कि सिंह की खाल में कुछ गधे/भेड़िये घूम रहे हैं।जैसे एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है ठीक वैसे ही ये भी कर रहें है।लेकिन सभी मछलियां अभी नहीं सड़ी हैं अन्यथा यहां रहना दूभर हो जाता।हम जी नहीं पाते।
अरुण कांत जी की रचना का कथ्यात्मक महत्त्व है, परन्तु, अनुज विंध्येश्वरी जी की बात से मैं पूरी तरह से इत्तफ़ाक रखता हूँ. अरुणकांत जी की रचना में इंगित सभी नामधारियों को मैं समझ पा रहा हूँ. एक वाकया प्रस्तुत कर रहा हूँ -
गुजरात के कच्छ में भूकम्प के दौरान मैं सेवा-भाव से आदित्यपुर और अंजार में था. अंजार, जो कि सौ प्रतिशत तहस-नहस हो चुका था, में तीन हजार लोगों के लिये सुबह और शाम चल रहे दो माह के लंगर की कमान व्यक्तिगत रूप से इन्हीं में से एक बाबा के हाथों में थी, जो किसी तथाकथित टैंट्रम से परे हार्दिक भाव से संलग्न थे, "मेरा सारा अर्जन इन्हीं का, इन्हीं को समर्पित.. त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये..". निहाल था कि मुझ सहित सभी प्रसादप्राप्तकर्ताओं से स्वयं पूछते रहने वाले सज्जन सुप्रसिद्ध कथावाचक हैं. इस यज्ञ में उनका साथ दे रहे थे, उसी अंजार के ठक्कर परिवार के सभी सदस्य. सभी यानि महिलाओं से लेकर बच्चे तक.
’सब धन बाइस पसेरी..’ का मुहावरा समाज के संस्कार के लिये खतरनाक हो सकता है. ढोंगियों और सज्जन में अंतर होता है, इसका विवेक बने इसकी आवश्यकता है.
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