परिदृश्य
(1)
फर्क
दो लड़कियां दोनों ही सुन्दर ,
उम्र थी सत्रह से कम ।
वस्त्र तन पर बहुत सीमित,
दिखाते ज्यादा छुपाते कम ।
झांकते यौवन ने उनके ।
ध्यान था सबका बटोरा ।
फर्क था बस एक ही
कि एक के हाथ में था
मोटा पर्स
और एक के हाथ में !
खाली कटोरा ।
(2)
पात्रता
जिस पर यकीं न हो सहसा ।
ऐसा ही हो गया था हादसा ।
एक सुहानी शाम ,
नहीं था कोई काम ।
मैं , खुद में ही मगन ।
निहारता हुआ गगन ।
चला जा रहा था,
मस्ती में चूर ।
तभी दिखीं दो वालाएँ ।
यौवन से भरपूर ।
एक उर्वशी एक रम्भा ।
मगर बड़ा ही अचम्भा ।
भीख मांग रहीं थीं ।
इठलाती हुई ।
वल खाती हुई ।
जिस दुकान में जाती ।
कुछ न कुछ ले आतीं ।
उनकी तरफ
मेरी भी नजर गढ़ी थी।
तभी देखा मेरे सामने ,
एक बुडिया खढी थी ।
अपनी झोली फैला कर ।
आंख्नो में आंसू ला कर ।
बोली बेटा,
मैं बहुत दुखी हूँ ।
कल से भूंखी हूँ ।
मेरे लिए तो जमाना कड़का है ।
मगर तू तो भला लड़का है ।
मुझे खाना खिला दे ।
एक कप चाय पिला दे ।
फिर बोली ,
आजकल कौन देखता है मन ।
उनके (लड़कियों के ) ,
पास है यौवन ।
मिल जाता है धन ।
क्या तू जानता है ?
आजकल भीख देने के लिए भी,
लोग देखते है तन।
Comment
मुकेश जी सादर प्रणाम !
आजकल भीख देने के लिए भी,
लोग देखते है तन।
आदरणीय मुकेश जी,
समाज में व्याप्त विद्रूपताओं और क्रूर कटु यथार्थ को अपनी सहज किन्तु प्रवाहमयी भाषा में आपने बखूबी उजागर किया है| बधाईयां!
मुकेश जी, यह है कविता, चाहे जिस तराजू पर तोला जाय कही से कमतर नहीं है , कथ्य और शिल्प दोनों, वाह वाह, बहुत बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति पर |
aadarniya, mukesh ji, sadar , bilkul vastvik chitran aaj ke samaj ka, sundar prastuti ke sath. badhai.
यथार्थ के गहन दर्शन का समावेश करती रचना पर बधाई स्वीकार करें.
आदरणीय मुकेश जी,
समाज में व्याप्त विद्रूपताओं और क्रूर कटु यथार्थ को अपनी सहज किन्तु प्रवाहमयी भाषा में आपने बखूबी उजागर किया है| बधाईयां!
//झांकते यौवन ने उनके ।
ध्यान था सबका बटोरा ।
फर्क था बस एक ही
कि एक के हाथ में था
मोटा पर्स
और एक के हाथ में !
खाली कटोरा ।//
//आजकल कौन देखता है मन ।
उनके पास है यौवन ।
मिल जाता है धन ।
क्या तू जानता है ?
आजकल भीख देने के लिए भी,
लोग देखते है तन ।//
भाई मुकेश कुमार जी ! उत्तम प्रवाह से युक्त आपकी दोनों ही रचनाएँ मर्मस्थल पर सीधा वार करती हैं ! बहुत-बहुत बधाई मित्र !
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