ऐ मेरी मुश्किलों सब मिलके मेरा सामना करो
मै अकेला ही बहुत हूँ तुमसे निबटने के लिए ,
ऐ मेरी मुश्किलों सब मिलके मेरा…
Added by Mukesh Kumar Saxena on May 24, 2013 at 9:30pm — 5 Comments
पाषाण सा मैं कठोर हूँ मुझको तरल बनाइये ।
मेरे छल कपट को छीन कर मुझको सरल बनाइये ।
मुझे शक है अपने आप पर बिश्वास भी खुद पर नहीं ।
मेरी पकड़ भी कमजोर है हाथों में मेरे बल नहीं…
ContinueAdded by Mukesh Kumar Saxena on March 7, 2013 at 11:09am — 7 Comments
दोस्तों ।
आज विजय दशमी है आज के दिन राम ने रावण को मारा था । यह एक मधुर कल्पना है की चाँद किस प्रकार खुद को राम के हर कार्य से जोड़ लेता है और फिर राम से शिकायत करता है और राम भी उस की बात से सहमत हो कर उसे वरदान दे बैठते है आइये देखते है ।
राम या राम चन्द्र
जब चाँद का धीरज छुट गया…
Added by Mukesh Kumar Saxena on October 24, 2012 at 1:00pm — 4 Comments
Added by Mukesh Kumar Saxena on August 15, 2012 at 11:30am — 3 Comments
Added by Mukesh Kumar Saxena on April 6, 2012 at 1:00pm — 8 Comments
मोबाइल घर
(दोस्तों हम लोगों की एक जमात से बन गयी है जहाँ एक कवि लिखता है और दूसरा पढता है मंझे हुए कवि मंझी हुई कविता सब कुछ एकदम प्रोफेशनल मगर कोई स्थिति जिसको आप ने देखा हो और आपके दिल में अन्दर तक उतर गयी हो उस विषय पर जब आप लिखते हैं तो बात कुछ और…
ContinueAdded by Mukesh Kumar Saxena on March 14, 2012 at 8:00pm — 5 Comments
भरत की व्यथा
घनी अंधियारी काली रात ।
सूझता नहीं हाथ को हाथ ।
घोर सन्नाटा सा है व्याप्त ।
नहीं है वायु भी पर्याप्त ।
नहीं है काबू में अब मन ।
हुआ है जब से राम गमन ।
भटकते होंगे वन और वन ।
सोंच यह व्याकुल होता मन ।
नगर से बाहर सरयू…
ContinueAdded by Mukesh Kumar Saxena on February 4, 2012 at 8:51pm — 5 Comments
छरहरा सा वदन उसका श्वेत वस्त्र धारण किये ।
था पीत किरीट भाल की शोभा तन वहुत नाजुक लिए।
खोल के जो कपाट घर के देखा उसको गौर से ।
शर्म से नज़रें झुका लीं प्रिय सी चंचलता लिए ।
थाम के उसको लगाया होंठ से अपने जभी ।
इश्क की गर्मी से मेरी खुद ही खुद वह जल उठी ।
खेंच कर सांसों को उसकी जब मै उसको पी गया ।
आग सीने में लगी जल कर कलेजा रह गया ।
धुंए का गुब्बार निकला और फिजा…
ContinueAdded by Mukesh Kumar Saxena on January 23, 2012 at 11:34am — 2 Comments
बीत यह भी साल गया
जिंदगी की पुस्तक से पृष्ठ कुछ निकाल गया |
करके कंगाल हमे बीत यह भी साल गया ||
भूपेन्द्र हजारिका जगजीत हमे बहुत प्यारे थे |
देवानंद और शम्मी देश के दुलारे थे ||
उनको बड़ी क्रूरता से आज निगल काल गया |
करके कंगाल हमे बीत यह भी साल गया ||
भृष्टाचार ख़त्म हो यह मन में सव विचारे है |
एक अन्ना काफी था यह तो फिर हजारे है…
Added by Mukesh Kumar Saxena on December 31, 2011 at 8:57pm — 9 Comments
Added by Mukesh Kumar Saxena on December 30, 2011 at 5:33pm — No Comments
एक बार बिष पान किया तो नील कंठ कहलाया .
रोज़ पिए इंसान जहर पर कोई समझ न पाया .
कितने ही अपमान के बिष घट पीना पड़ता है.
जीने की जब चाह नहीं तब जीना पड़ता है.
तिरस्कार का कितना ही विष हमने रोज़ पचाया.
एक बार बिष पान किया तो नील कंठ कहलाया .
रोज़ पिए इंसान जहर पर कोई समझ न पाया .…
Added by Mukesh Kumar Saxena on December 20, 2011 at 8:05pm — 1 Comment
देख लो मन में भरी उमंग.
देख लो जीने का भी ढंग.
की जैसे उड़ती हुई पतंग.
नस नस में उठती नयी तरंग.
फिर ही कहते हो हमे अपंग.
कभी देखा है ऐसा रंग.
कभी पाया है ऐसा संग.
कभी है मन में बजी मृदंग
कही क्या खा आए हो भंग.
कहो फिर कैसे कहा अपंग.
माना है हम शरीर से तंग.
मगर हैं दिल से बड़े दबंग.
भरा है मन में जोश उचांग
लो पहले खेल हमारे संग.
हार जाओ तो कहो तड़ंग.
जीत पाओ तो कहोअपंग.
भले ही घुमओ नंग धड़ंग.
मगर ना हमको कहो…
Added by Mukesh Kumar Saxena on December 20, 2011 at 7:17pm — 1 Comment
Added by Mukesh Kumar Saxena on December 17, 2011 at 7:27pm — 3 Comments
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