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गोरी के आंचल में 

झिलमिल सितारे हैं 

चंदा को सूरज भी 

छिप के निहारे है 

------------------------

रेत के समंदर में 

बूँद एक उतरी तो 

ललचाई नजरों ने 

सोख लिया प्यारी को 

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उदय अंत में त्रिशंकु -

बन ! मै लटकता हूँ 

राहु -केतु से कटे भी 

दंभ लिए फिरता हूँ 

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चार दिन की जिन्दगी है 

चार पल की यारी है 

चाँद भी खिसक गया 

रात अंधियारी हैं 

-------------------------

कल अंडा था 

बच्चा बनकर 

चीं चीं चूं चूं बोला 

खेला खाया 

उड़ा साथ कुछ 

मै रह गया अकेला 

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Comment

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Comment by MAHIMA SHREE on April 15, 2012 at 10:49pm

आदरणीय भ्रमर सर

नमस्कार , सर क्या बात है , बिलकुल अलग अंदाज में ..

बहुत अच्छी और हट के प्रस्तुति.. 

Comment by satish mapatpuri on April 15, 2012 at 9:31pm

गोरी के आंचल में

झिलमिल सितारे हैं

चंदा को सूरज भी

छिप के निहारे है

यह हुई न भ्रमर वाली बात ............. खुबसूरत ....... दाद कुबूल फरमाएं

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 15, 2012 at 8:55pm

बहुत सुन्दर रचना है भ्रमर जी, सुन्दर भाव के साथ, बधाई...


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 15, 2012 at 4:35pm

शानदार भ्रमर जी, सभी लघु कवितायेँ सुन्दर बन पड़ी हैं , बधाई स्वीकारें |

Comment by Sarita Sinha on April 15, 2012 at 1:51pm

बहुत सुन्दर रचना है भ्रमर जी, सुन्दर भाव के साथ, बधाई...

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 15, 2012 at 1:14am

चंदा को सूरज भी 

छिप के निहारे है

आदरणीय भ्रमर सर बहुत ही सुन्दर रचना बधाई स्वीकार करें

कृपया ध्यान दे...

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"वाह..बहुत ही सुंदर भाव,वाचन में सुन्दर प्रवाह..बहुत बधाई इस सृजन पर आदरणीय अशोक जी"
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