माँ मुझे बचपन में मेरी उम्र के हिसाब से कुछ ज्यादा ही रोटियां दिया करती थीं. इंटरवल में सारे बच्चे जल्दी जल्दी खाना ख़त्म करके खेलने चले जाते थे. और मै अपना खाना ख़त्म नहीं कर पता था. तो डब्बे में हमेशा ही कुछ न कुछ बच जाता था, और मुझे रोज़ डांट पड़ती थी. मेरी बहन भी घर आ के शिकायत करती थी कि उसे छोड़ के इंटरवल में मै खेलने भाग जाता हूँ.
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एक दिन मेरी बहन मेरे साथ स्कूल नहीं गई. मै ख़ुशी ख़ुशी घर आया और माँ को बताया की मैंने आज पूरा खाना खाया है. माँ को यकीन नहीं हुआ, उन्होंने डब्बा खोला और एकदम साफ़ सुथरा डब्बा देख के, मुझे दो झापड़ रसीद कर दिए.
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फिर माँ बोली की आज तुमने अपना पूरा खाना फेक दिया इसलिए मार पड़ी है. मुझे मालूम है की मै तुम्हे ज्यादा खाना देती हूँ और तुम छोड़ोगे ही. लेकिन अगर 4 रोटी में से 2 भी खा ली तो कुछ तो तुम्हारे पेट में जायेगा.
ये वो माँ का प्यार है, जिसे बचपन में समझ पाना हमारे वश की बात नहीं है.
Comment
आदरणीय प्रदीप जी, सादर धन्यवाद.
//हमारा अहम् इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में ही रैगिंग के दौरान मर चुका है//
धीरे-धीरे बोलिये, भाई.. उस कॉलेज का पंजीयन फेरवाने के फेर में हैं क्या ??? .... .. जय होऽऽऽऽ :-))))
लघुकथा पर - कथ्य के लिहाज से बेहतर कथा है और शिल्प के लिहाज से गणेशजी ने कह ही दिया. वैसे आप अभ्यासरत रहें, आपसे बहुत ही आशान्वित है यह पटल.
हार्दिक बधाई.
स्नेही राकेश जी, सादर. कथा पढ़ी. मेरे अश्रु माँ के चरणों में स्वीकार करें.
आदरणीय बागी जी, सादर, आपकी बात शिरोधार्य, जहाँ तक कला का प्रश्न है, मै नौसिखिया हूँ, ओ बी ओ पर आकर छंद से ले कर ग़ज़ल तक एवं कहानी सब पर अपने हाथ आजमा रहा हूँ, साथ साथ सीख भी रहा हूँ, ये मेरी तीसरी या चौथी कहानी होगी, तो पूर्ण कैसे हो सकती है, आप लोगो के सानिध्य में हूँ, जीवन चर्या से जो वक्त मिलता है उसमे रचना भी करूँगा और आप लोगों के द्वारा बताई बातों पर अमल भी. हमारा अहम् इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में ही रैगिंग के दौरान मर चुका है, इसके बारे में आप निश्चिन्त रहें :)
आदरणीया राजेश कुमारी जी, महिमा जी, श्री लक्ष्मण जी, एवं परम मित्र वाहिद भाई, सादर नमस्कार, आप सभी लोगो को कहानी ने छुआ, लिखना सार्थक रहा.
श्री लक्ष्मण जी, आप की बात से मई सहमत हूँ, कई बार घर में अच्छी खाने पीने की चीज़ें आने पर उसे माएं आज भी बच्चों के लिए रख देती है.
राकेश जी, कथ्य पर मैं नहीं जाकर केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि "लघु कथा कि कसौटी" पर और भी कसने कि जरुरत है | हम सभी सीखने के ही दौर में है, अन्यथा नहीं लीजियेगा |
त्रिपाठीजी, माँ के प्यार पर जितना लिखा जावे, कम है |
एक ही शब्द... निःशब्द...! :-))
राकेश त्रिपाठी जी माँ का प्यार ही एसा होता है जो प्राय खुद माता-पिता बनकर या दूर रहकर ही समझ में आता है बहुत प्यारी सी लधुकथा
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