आंदोलित विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने अपनी मांगे सरकार से मनवाने हेतु व्यस्ततम चौराहे को मानव श्रृंखला बना कर घेर दिये थे, मेरे नेर्तित्व में भी एक संगठन नारेबाजी और रास्ता अवरुद्ध करने मे संलग्न था, भीड़ में कुछ मरीजों के परिजन अपनी गाड़ियों को आगे जाने देने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे, राधे बाबू जोर जोर से सभी को निर्देशित कर रहे थे कि एक व्यक्ति को भी आगे नहीं जाने देना है, चाहे कुछ हों जाए | एकाएक राधे बाबू का स्वर बदला और कहने लगे कि जाने दो भाई मरीजों की गाड़ियों को जाने दो | मैं आश्चर्य से पूछ बैठा "अरे राधे बाबू ये क्या हो गया आपको,अभी तो आप कह रहे थे कि किसी को आगे नहीं जाने देना है चाहे जो हो जाए और अभी जाने देने को कह रहे है"
Comment
प्रिय कुमार जी , सस्नेह.
सादर प्रणाम कुशवाहा सर
आदरणीय अशोक जी, सादर अभिवादन
आदरणीय प्रदीप जी
सादर, हकीकत के बहुत करीब और शिक्षाप्रद भी है ये लघुकथा. बधाई.
आदरणीय सौरभ जी (गुरुदेव जी) , सादर अभिवादन.
जाके पाँव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई.. . राधे बाबू या इन जैसे लोग इतने मायोपिक होते हैं कि उन्हें बस कुछ दूर तक की नहीं सूझता, केवल आसन्न लाभ और घिनौनी स्वार्थसाधना के. बहुत ही सही तस्वीर निकाली है आपने, आदरणीय प्रदीपजी.
बचपन में अण्टन चेखोव की एक नाटिका ’गिरगिट’ जो कि इसी तरह की दोगली नीतियों पर एक सशक्त नाटिका है, के गली-मंचन (Street skit) के क्रम में हम गोहराया करते थे, झटपट रंग बदल लो भाई, झटपट ढंग बदल लो..
आपकी इस लघुकथा ने अनायास उन दिनों की याद ताज़ा करा दी. सादर धन्यवाद.
स्नेही महिमा जी, सादर.
प्रिय मृदु जी, सस्नेह.
आदरणीय बागी जी , सादर
आदरणीय प्रदीप सर , सादर प्रणाम ,
आपकी कथा गिरगिट के लिए बहुत -२ बधाई ...सच इंसान अपने लिए तुरंत नियम तोड़ देता है और बदल जाता है ..
बहुत अच्छी प्रस्तुति
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