वो बच्चा
बीनता कचरा
कूड़े के ढेर से
लादे पीठ पर बोरी;
फटी निकर में
बदन उघारे,
सूखे-भूरे बाल
बेतरतीब,
रुखी त्वचा
सनी धूल-मिटटी से,
पतली उँगलियाँ
निकला पेट;
भिनभिनाती मक्खियाँ
घूमते आवारा कुत्ते
सबके बीच
मशगूल अपने काम में,
कोई घृणा नहीं
कोई उद्वेग नहीं
चित्त शांत
निर्विचार, स्थिर;
कदाचित
मान लिया खुद को भी
उसी का एक हिस्सा
रोज का किस्सा,
चीजें अपने मतलब की
डाल बोरी में
चल पड़ता है
आगे,
अपने नित्य के
अनजाने या फिर
अंतहीन सफ़र पर,
शायद
कल फिर आना हो
चुनने
कुछ छूटे टुकड़े
जिंदगी के|
Comment
मान लिया खुद को भी
उसी का एक हिस्सा
रोज का किस्सा,
चीजें अपने मतलब की
डाल बोरी में
चल पड़ता है
आगे,
आदरणीया राजेश जी, बिलकुल सही कहा आपने कि ऐसे बच्चे जूठन खाने को भी विवश हो जाते हैं| ऐसी सामाजिक असमानता पर मन आक्रोश से भर उठता है| उन सरकारों पर गुस्सा आता है जो वोट तो ले जातीं हैं पर बदले में कुछ नहीं देती, यहाँ तक की मौलिक अधिकार भी नहीं......
निर्दयी प्रारब्ध को निरुपाय समेटने को विवश कोई जीवन सापेक्ष रूप से थिर-सा भले दीखता हो उसकी अंतर्धार में अवश्य ही अकथ आलोड़न होता है. कुमार गौरव अजीतेन्दु जी ने शब्द-चित्र के माध्यम से समाज की विड़ंबना को उकेरने का प्रयास किया है. इस सुप्रयास के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ.
गरीबी का जबरदस्त चित्रण किया है आपने | मैंने तो कई बार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर चाय की दुकान के सामने कचरा इकठ्ठा करने वालों को डस्टबिन में से लोगों की झूठन को खाते हुए देखा है ह्रदय विचलित हो उठता है इस देश की हालत को देख कर|
गौरव जी ,
संवेदनसील मसला उठाया है बहुत ही मार्मिक दृश्यों के साथ कुमार गौरव जी आपको बहुत बहुत बधाई अत्यंत सुन्दर
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